دوشنبه ۱۳ اسفند
شعر چهار پاره
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مارمولک ها را ببین پف می کنند
بر صورت خوبان گهی تف می کنند
این ما
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شب های تنهایی نمی گیرد تو را از من
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ساده دل بودیم از مکر جدا
عاشق هم بودیم جان فدا
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⭐️ستاره یِ بختِ من در افق نمایان شد⭐️
⭐️درخشید و محو در پشتِ ابر و باران شد⭐️
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تنهاتر از من بود/
بیتاب رفتن بود
...
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دگرگون دیر حالیم قالخیم گئدیم می خانه می خانه
شرابِ نابِ دن گیزلین ایچیم پیمانه پیمانه
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سرپوشِ مُشتے عشق
بارانِ ؋ـالے تر
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فرزند بهمن ماهم و فرزند سرما...
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در قهوه ات پایانِ تلخِ قند بودم ...
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نفرین به اشک های من از بعد دیدنت
وقتی نکرده هیچ کم از دردهای تو
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هنوز مانده تبر های انتحاری من
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«جهان تا عشق باشد ، جان بدارد»
«کسی عاشق شود کو دان بیارد»
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لحظه ها بر من فــرود آمد ، فـرود آمد ، فــرود
آخرش رنجور و تنها مِی ز قلـبِ خود چشیـدم
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ای ساربان اُطراق نه ! پر شورِ زین جـــا رفتنم
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رخت عزاست بر تئوری های باخته
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غیبت چه می شود
پشت سر کسی حرفی اگر زدی
اما اگر نبود در دیدگاه ما
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می روم از خانه بیرون تا کمی
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چه میدانی تو از شعری که با خون دلم گفتم ؟
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ویرانگر است جاذبه ساحران عشق
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تلخ بودم که قهوه من راخورد
تلخ بودم که باورم کردند
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میدونی که میلم به رفتن نیست
میرم ولی میدونی از اجبار
احمدصیفوری
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معلوم نیست اصلا برایش گریه کردی
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پشت حصارِ باغ چشمش با کلاغی پیر
رد و نشان ِ پنجه را طناز تر کرده
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زمانی آینه همخانه ای داشت
نگاهی آشنا اندر دلش بود /
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میروم آسیمه سر از کوچه ها
میروم تا عابری دیگر شوم/
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در شبی سرد و خموش و بی صدا
بار دل بر بسته بود و رفته بود
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بیزدن سلام اولسین اهلِ عرفانه
حقدن گلن بیزه امانت ندی؟
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به پاییزی ترین لبخند سوگند
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داری میری از پیشمون بی صدا
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بیدار شد بخت من از این روز دلخواهت
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از آب ِ مفقود الاثر، ردّی
در زیر ِ پاهای ِ سراوان نیست
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آسمان ابری و غزل آلود
چشم ها بی قرار و سرگردان
می برد با خودش مرا بی شک
حس زیبای صبح کوهستان
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لطفا نرو...
لطفا نرو...
زنده نمیمانی!
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در عصر ما تفکر انسان نشانه رفت
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دلنوشتۀ من..؟
آی آدما ؛ این روزگار؟
پاییزه بی عطربهار
اگربهش خوبکنید
زردی میاد قطارقطار
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چروک دست های تو نشان از بندگی دارد
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به رسم ادب هرشب اینجا برایت
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زوزه می کشم در خود
من سپید دندانم
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یک جوانک از میان دِه خرامان میگذشت
خطبه ی ملا ز مسجد تا به بیرون میرسید
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ناگه از بین این همه آبی
پَری قصّه گو رَهید و جَهید
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من از خاندان وفاداری ام..
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آهای عشق قدیمی یارِ امروزی
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🌷بیست و پنجم ز ماه آبان شد🌷
🌷روز ایثار اصفهانی ها🌷
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اینجا که من هستم دقیقا ساعت صفر
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این چلچراغ بر سر گورِ که روشن است
این شهر نیست، مظهر ویرانی من است
یا سفرهٰ ضیافت دزدانِ با چراغ
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تنها جوابِ ما دو تا، یک جمعِ سادهست ...
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کل بُزی هرگز نزاید، خشکسالی دوقلو
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ای فروغت مطلع تابندگی
آسمان عشق را زیبندگی
ریزش عطر بهاران امید
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درهبوط رنگ رنگ برگها
کوچه های شهرخیلی باصفاست!
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گم شدم در میان گمراهی
گم شدن شکل دیگر مرگ است
حال و روزم شبیه پاییزیست
که در آن مرگ، جبر هر برگ
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لیلا که شاعر نیست ای ابله ..
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باز عزم سفری دیگر و باری دیگر
سینه سنگین شد از این بار که بر می بندم
باز هم در چمدان رخت عزا می چی
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زندگی جمع من و تنهاییست ...
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دیدن ندارد آسمان وقتی نمی بینم
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درد آهش تا ثریا رفته است!
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دیگر به جز یک مرگ شیرین کار وامانده ندارم
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این حال بارانی چراازپوستین تابرشده
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شیری که باز آغل گوساله میدرید
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خبر از مرگِ شعرِ من داری؟
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تو از جادوگران شهر چشمانت خبر داری ؟
که من در دام مژگان سیاهت می سپارم جان ؟
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ایستگاه آخراست این انتظار....
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چه استقبال تلخی کردی از مهمان خود پاییز
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