يکشنبه ۷ بهمن
شعر شعر و شاعری
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پای یادت از دلم بیرون بکش
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از کوچهٔ ما هم بیا یک بار بی هوا
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توی ابریشم موهات دست من چه بی قراره
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می روم از خانه بیرون تا کمی
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باز کن در را برایت یک"بغل"آورده ام
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مرا یاد تو و آن کوچهٔ بن بست خواهد کشت
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چه میدانی تو از شعری که با خون دلم گفتم ؟
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وطن یعنی پسر در آرزوی زندگی شد پیر
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گرچه با فنجان شعری دلخوشم...
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با پیرهن زرد و نجیب و ساده
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دمشب بیا در خلوتم بنشین کمی دیوانه شو
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ای دریغ از روزهای رفته بر باد
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بین من و اشک دیده ام فاصله ای نیست
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شد هوا روشن ، کشیده چادرش را ماهتاب
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🌱پناه
ای پناهِ دل، نیکی فراموشنشدنی
در آغوش آرام، همچون باد بهاری
نگاه تو، دریایی از عشق و امی
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دوس دارم از لابلایِ سیمای پر خار غصّه
رد بشم برم جایی که، هیچ کسی ازم نپرسه
از کجایی تو؟ کی هستی؟
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عشق یک سویه برایت رنگ خواهش می شود
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شعرهای تازه دم دارم برایت مزه کن
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بعد یک جنگ روانی و همه دردسرم
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الف آزادگی شد درس اول/بشد ب حرف دوم بی معطل
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خورشید در سیطره ی سیاه شب زندانی است
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تو انعکـاسِ جهــانِ دوبــاره ای حتماً
طلـوعِ ســر زده ی بی بهانه ای اصلاً
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تلخ است نباشی و فقط یاد تو باشد
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مثل غم ها با وفا و جاودان اصلا ندیدم
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پشت شیشه برف می بارد و من ..
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من پای دلت از همه آزار کشیدم تو نبودی
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می روم از بینتان روزی که خیلی دیر نیست
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بیا از کوچه های سرد و غمگین
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سلام ای عشق افسونگر، شبت ماه و خدا قوّت
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افتاده راهم سمت باغی بس تماشایی
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آچیلدی گُلّو چیچکلر چولاشدی باغچامیزا
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زمستان و است و یار امشب شده مهمان خانه
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آن که رسمش بود آتشدان شد بر هر دلی
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نوای هم نفسی جز عسس نمی آید
نسیم زندگی از این قفس، نمی آید
پیام روح نوازی، ز کس نمی آید
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به یلدا می رسم بی حرف و چانه
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رسیده آخرین ساعات رفتن های پاییز
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این شب تاریک هم طی می شود سوی بهار
نور از خورشید میبارد به سرخیِ انار
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آااای آنهایی که دل دادید بر دنیای دون
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دوباره شعر گفته ام، دوباره بغض کرده ام
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داری میری از پیشمون بی صدا
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عوض شد بعد تو دنیای من ، گفتم برایت؟
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جنگل عاشق پروانه دروغ است دروغ
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من دلم دیگر برای این همه غم جا ندارد
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خدایا قلب من شفاف چون آیینه گردان
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بانوی بهاراست وپر از روسری زرد
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انگار شاه سوریه لشکر ندارد
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بیدار شد بخت من از این روز دلخواهت
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نمایشِ غریبی است
زندگی
در گرگ و میش بازی تزویر و
سادگی
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به یلدا می رسم اما بدون او که دیگر نیست
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از همان کودکی ام غصه شده همدم دل
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با جیب پر از سنگ به میدان رفتی
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با سوز سرمای بدی در استخوان امشب
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حالم خراب است و نمی دانم چه باید کرد
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یک عمر دلم در طلب عشق دویده
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هر چه این دنیا فراوان گرمیِ بازار داشت
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قران ز بر ندانم حتی به یک روایت
اما به زندگانی می دارمش اطاعت
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به منِ خسته ز خود رخصت دیدار بده
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باران دوباره شور باریدن گرفته وا کن آغوشت
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شاعر که «رِند» باشد
گاهی خودش را به صاعقه می زند!
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با درد و رنج، گنج، میسّر نشد مرا
اجری، به پاس رنج، مقرّر نشد مرا
توفیق یافت هرکه ریاکار بود و بس
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دیگر نمیخواهی پس از این همدمت باشم
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با تو از عاشقی پُرم قهر نکن جان دلم
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عمری است که شب پوشش رنج است و تب و درد
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ایـن زاهـد بیمایه که از خـویش رمیـده
تـن پوش ریـا دارد و تـن پوش خـدا نه
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جناب خر سلام عرض ادب دارم ،ارادت
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چروک دست های تو نشان از بندگی دارد
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کجایی تا ببینی زندگی بی تو جهنم شد
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به رسم ادب هرشب اینجا برایت
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پلک بر هم زده ای ، وا شده باب غزلم
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از دست گریه هیچ کاری برنمی آید
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شعری ندیدم درخورِ والاییِ یک مرد
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