چهارشنبه ۲۱ آذر
شعر تک بیتی
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استحکام و پایداری فردی
ای انسان
تکیه بر خود کن و براندیشهء خویش
چون درخت تکیه بکن برریشهء خویش
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در این روزگار فانی تا میتوانی دلش را بدست آور…
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شد دفترم سیاه به مشق نستعلیق عشق
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دوره گردی میکنم در کوچههای خاطرات
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پینهی پیشانی زاهد نشانِ زُهد نيست
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تضاد بین واقعیت وخیال
ای یار
چشم ماهی آبی وچشمان من هم پرزآب
او میان آب دریا من شناگر در سرا
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اگر از عشق جانت بی نصیب است
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هر چه تاب آوردم و بر لب گرفتم درد خویش
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سر این سفره صبحانه مگر...
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راهی مرا نشان ده در شهر گیسوانت
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کاشکی مثل کبوترا میچرخیدم تو حرمت
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شاید مگر رسد به دستِ طفلی زبالهکش...
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غصه کم کن چون در این دِه پیروان حزب باد
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من کنارت میشینم تا موهاتو شونه کنم
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از این دنیای ناباقی پی ساقی
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سر بریدن چمن
بویست زفریاد و سخن
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از یک تفنگ...تا دل عشاق پرگرفت
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تو آن مهبانگِ امّیدی که بشکفت از دلِ پوچی...
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تاک نورسته در این غوغای دشت
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دروازهٔ آزادیِ آوازِ مرا بست...
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هر چند که در عرش خدا.....
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آقاجان! (یا صاحب الزمان) بیا، به این درد دیرینه ی فراق پایان ده!
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اگر شیری اگر میری اگر مور
گذر باید کنی آخر لب گور
اگر شادی اگر شوری اگر مست
طریق آدمیت در سرت ه
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هردلخوشی که بود فقط باتوبودوبس
بعدازتو دلخوشیزدلم پرکشیدورفت
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مرا به خنده بینداز و خواهشا نگذار
که زارِ زار بگریم بد است بازارم!
- امین زمانیان
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عشق را چون برده در بازار حراجش مکن
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حدیث عشق میگویم به گوش باد تا شاید
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یارب به کَرَم خوب نما حالِ دلِ ما_با آمدنِ "منجیِ" ما، یوسفِ زهرا
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درد دل کن که نماند به دلت دلتنگی
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گردید عیان در بدن مرتضی خدا
پس اتحاد آخرت عشق و عاشقیست...
امین زمانیان
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در میان خلوت شب های تاریک دلم
عطر آن معشوقه ام مستانه غوغا می کند
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سیلاب خروشان به صباحی دِه ما بُرد
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مستیم که دیوانه ز خویشیم
نه عاقل به شما
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لب ایوان غزل بودن و با حسرت خاص
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شادان برو.اجتماعی
با اشک دنیا آمدم ، با اشک می میرم هلا
در زندگی بامعرفت، آزاده شو شادان برو
آ
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تمام لحظه ی من پر شد از خیال تو دوست
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من که آخر میشوم پروانه ای در این دیار
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در کوچه های واژگان دنبال مفهوم تو ام
آمد به سر این واژگان اما کجا مفهوم تو؟...
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بی محابا مو پریشان کرده ای بر شانه هایت،بیصدا
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در مورد بهار و این که شاید هر بهاری که می بینیم آخرین بهار زندگی مان باشد....
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از کدامین شهد گل آورده ای کندوی خویش؟
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وقتی تبسّم می کنی
در خود مرا گم میکنی
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بیچاره آن گرگ زبون بر دوش کوهی بس بلند
کز دوری ماه شبش زوزه به عالم میکشد.
م.پاس
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بر موج گیسوی سرش لنگر زده کشتی دل
حاشا اگر دل نسپرم بر موج توفان زای او
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