چهارشنبه ۷ آذر
اشعار دفتر شعرِ بیدل بوی دلبرم شاعر محمد شریف صادقی
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نامسلمان! به خدا این نه مسلمانی بود!
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این «خود» من یا آن «خود» من؟!
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چشمهٔ فریادم از جان جوشیدن گرفت...
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من بندیِ بند و در قفس حیرانم!
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ای بِشکند آن دست که بر غیرِ تو دادیم!
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من از تو نخواهم هیچ...الا خود تو
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بیمحل میگذری از منِ آواره محل...
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ای فدای ردّ پایت، ای سوارِ بینشان!
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کاروان دلِ من، منزل بسیار گزید...
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لحظهبهلحظه بیامان خواهی بود...
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چون از تو امید بربگیرم ای عشق؟!
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من آن تنهای تنها در حصارم...
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دل گیر و مگرد از سخنِ دل، دلگیر...
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بت تراشند ولی... بتشکنِ قهارند!
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گوشها را ولوله انداز و رعدآسا بسوز
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بی عشق اگر شدی...تماما لافی!
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آزاد ز خویش و از دگر باید بود!
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باید گُذری از گذران در هر روز...
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یکدم نه بنشینم مگر در دیده بنشانم تو را
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هست از تو مرا هر آنچه از هستی هست...
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بس در پی ظاهری، نهان را پس چه؟
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دل و جانی که در بردم من از صد دام دلبازی
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غم دوست را به جز دوست به کسان نمیتوان گفت...
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