يکشنبه ۱۸ آبان
شعر غزل
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جرمت همین باشد همین، کردی هواداری مرا
گفتی که عاشق میکشی، کشتی تو اجباری مرا
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آخرَت، جان گران، تا کی ات اندر خُسران
این همه هم زدن ِدفتر دل ها به دو چشم
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صحنه تاریک است. نور موضعی بر چهرهی شخصیت. صدایی آرام، لرزان، اما پرشور آغاز میشود
محبوبا
پیم
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گویی امشب در سرم دیگر هوایی نیست ، نیست
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با وجود تو مرا نیست غمی در دو جهان...
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به یادِ مهرِ تو، ای مایهی صفایِ دلم
تو روشنیِ شبِ تیره ، پا به پایِ دلم
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ما را خیال وصلش بر باد داد آخر
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قیمت ها شکسته
ثمین ها اُفت کرده
سنگر به سنگر، در حال ریزش
سقوط جبهه هایِ بی خیزش
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بیزارم از خود بیتو چون بسیار، زُل میزنم ناچار بر دیوار
زُل میزنم ناچار بر دیوار، بیزارم از خود ب
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همنشین من و چشمان ترم شب شده است
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نقش دیبایی که ما با رشته ی جان بافتیم
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شعر من با نام تو بار دیگر بال وپر گرفت
نغم
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در گیر و دار آن غمت غم خوار و غم دارم نما
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گفته باشم ۶
هواخواه تو هستم گفته باشم
به پای تو نشستم گفته باشم
اگر سر بر سر دوشت نبودم
به آنی
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از غیر گریزانم ، کم گشته ز آمارم
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شعر اندرزی است که هرگز به انسانهای نادان و حق ناسپاس ،مجال حیله گری ندهیم
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قبل از این سجده کنان بوده زمانی کعبه
سجده میکرد خود از قسمت داخل به علی
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با تو گویم سرّ و اسرار دلم تا عشق باشد
تا بیایی تو به سوی ساحلم تا عشق باشد ...
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آن روزهای دور و رویا گونه را در یاد داری ؟
ای کودک پیر از شقاوتهای این شب های با رویا غریبه
آن روز
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در این اجاق مرده ، دیگر شراره ای نیست
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ماه باید شود به تاریکی /
سایه ها، پشت شیشه ها بروند
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خمِ زلفِ تو مشکین است، میِ ناب تو شیرین
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نه میل عاشقی دارم نه قصد ثروت اندوزی
فقطاینرابدانلیلیزبعدمنتومیسوزی
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غزل
به انجمن سرانجام جان رسانی
که هر انجام ارجمندت، جان رسانی
اگر در این ره، یک لحظه
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پدر ققنوس، حقیر خاکستر او
هزاره هم نفس با بستر او
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پشت دیوار نگاهم دردها خوابیده است
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در دل شب می رسد آوای جان افشان عشق
در دم مستی فزای نم نم باران عشق
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هوس بوسه کرده این دل از لبانت، ای لب شکر
دل را ویران کرده لشکر چشمانت، ای لب شکر
از خویش و تن بیگ
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دلم به عشق تو کوک است، جان و جانانم
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آمــدم لــقـمــه بــگـیــرم کـه گـلــوگـیــر شــدم
مـن از ایـن زنـدگیِ نـکـبـتِ خـود سـیــر شـدم
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در من زنی آتش زده آزادی اش را
خاموش کرده آرزوی عادی اش را
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دلِ معشوق به تو میل و گرایِش دارد
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گیرم برسیم به هم در رویا...
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سند بنام خودش زد که عاشق علی است
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هوای شهر پریشان است و غناری بار بسته
زمانه، فتنهخیز است و دلطاووسِ شکسته
ز جهلِ مردم، بدخو
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عشق یعنی همه ی روح و روانت باشد
ذکرِ دلدادگیش وردِ زبانت باشد
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بی تو به دوش میکشم آرزوی محال را
چون تو نمیبرد کسی از دل من ملال را
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🌺این جهان با مهر و نیکی، وَه که جایی بهتر است
گر مدارا کردی و سازش، که راهی بهتر است
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آنگونه دعا میکنم افتم به دلت که
یونس ز خدا خواست رهد از دل ماهی
گردی ز دل سوخته ریزم سر سرمه
خطی
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«زاهدانه_ لن ترانی»
همه از تو مینویسند ،
که تو، خالق جهانی
زاهد از تو مینویسد،
به دلیلِ آن
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جان پناه همیم ـ..
من وتو عاشق ودلداده و پناه همیم
درتنگنای زمان بخشش گناه همیم
هرگز به
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چه کسی مرا رساند به سرای مهر و آبان
من خسته دل تو دریاب ز خزان و برگ ریزان
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چون بلوطی پیر عمری سایه سارت بوده ام...
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شاید این لحظه همان ساعت مضطر باشد
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لبت نه گوید و پیداست دلت می گوید آری
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دلا امشب که آید زینب کبری (س)
آسمان پر ستاره نور باران می شود حالا
نور مهتاب چه روشن کرده بالا ر
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اگر عاقل ترین اهلی یِ جنّت، «ترکِ اولی» کرد
برایش «شبهِ تاوان» شد هبوط آدم و حوّا
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منی که در مساحتِ قلبم، تو دایرهای
به دورِ حیطهٔ عشقت همیشه پرگارم
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حالا که داری میروی خوشحال و بی صدا
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دوبارهعیدنزدیکاست
ولی منمنتطرهستم
وتودیگرنمیآیی
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ای بشر ای آیتِ اسرار حق
در تو پنهان است گنجِ دیدار حق
گر ز غفلت پردهها را برکنی
در
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و سوگند به لحظه دیدارت عزیز من
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باز در فصل خزان شد برگِ گل پرپر چنان ..
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تو چو شیرین خوشی بی من و من چون فرهاد
بیش از پیش شدم بی سر و بی سامان تر
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سخت است
که سخت باشی
اما دل ات باران باشد..
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یافتم در دل شکستگان معرفت
که صلب بودند ز لطف و محبت
هوهو کردند مردم آنها را به ذلت
بستند چشم
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جهان را ز چشم «مجازی» چشیدن
نکرده سیاحت، «تو حیفی عزیزم»
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به نام آنکه جهان را خرد بداد نخست،
به کوروش آنکه ز عدلش جهان فتاد درست
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رنگ زر داریم ورخساری گل آلود وسیاه
زین سبب گه گاه انرا نقره کاری میکنم
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