چهارشنبه ۷ آذر
اشعار دفتر شعرِ بادهای ناگهان (منتشر نشده) شاعر محمد شریف صادقی
|
|
نه نه نه نه! نه من کنم این را نه!
|
|
|
|
|
واعظان گویند «هست» و ملحدان گویند «نیست»
|
|
|
|
|
شاید مگر رسد به دستِ طفلی زبالهکش...
|
|
|
|
|
جز خاکوخونِ خویش چه خاکی به سر کند؟!
|
|
|
|
|
از یک تفنگ...تا دل عشاق پرگرفت
|
|
|
|
|
تو آن مهبانگِ امّیدی که بشکفت از دلِ پوچی...
|
|
|
|
|
دروازهٔ آزادیِ آوازِ مرا بست...
|
|
|
|
|
بال بشکسته و افتاده، وُ سوزان پَرِ اوست...
|
|
|
|
|
شهرهٔ مشروب و عَلَف...اما در خلوت!
|
|
|
|
|
صد فاحشه به شهر و صد طفلِ بیپدر
لیکن که تار مویِ زنِ ماست بیعفاف!
|
|
|
|
|
در مرگِ من، آن بیمَنِ من، کیست که هست؟
|
|
|
|
|
بر در، تو چرا ماندی؟ برخیز بیا در بر!
|
|
|
|
|
جان میبُرَم از بَر، لیک، از دلبر و دل هرگز!
|
|
|
|
|
هزار لحظه، همزمان ز من تردّد کرد...
|
|
|
|
|
یا سر به زمین گذار یا مِی سرکش!
|
|
|
|
|
رقص از این نغمهٔ غم میکنم و نقضِ غرض...
|
|
|
|
|
ای فتنهانگیزترین آرامْدار دلها...
|
|
|
|
|
کشوری هست که با جمله جهان در جنگ است...
|
|
|
|
|
آن دم که لبم بر لبِ ایمانسوز است...
|
|
|
|
|
و کیست آنکه برای حقیقت بایستد..
|
|
|
|
|
شب را به تو بنماید و گوید روز است...
|
|
|
|
|
هر شب، شبِ قدر است و هر روزست نوروزی دگر...
|
|
|
|
|
آن شیخ که در نماز بس گریان شد...
|
|
|
|
|
سال خوشت باد و صد سال چو این سالیان...
|
|
|
|
|
پیِ بیراهه به راه افتادم...
|
|
|
|
|
به راستی آیا که ذات آدمی...
|
|
|