دوشنبه ۸ خرداد
شعر تضمین
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گفتم : وای که چقدر تنهایم** گفتی : من که به تو نزدیکم **
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من بخیال وصل تو در پی هر بهانه ای
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سالها دل طلب جام جم از ما میکرد
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من نه عاشق هستم و نه محتاج نگاهی که بر من بلرزد
بسوی عشق پر درد نمیروم شیرینی زندگی بیشتر بر من میل
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خانه سنگی وخراب است به قصری نَبَرَندَش
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تو گویی شیخ صنعان گشته مجنون دخت ترسا را
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در این سرای پُر زَر و سیم آدمی
بُرد آن کسی که در پی بستر نمی شود
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قلم از شوقِ سرودن شده چون اسبِ چموش!
دفترم بسترِ اشعارِ پر از جوش و خروش
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تو همان شـــراب نابی به ســبوی میگساران
تو همان نگاه عشقی به طلـــوع صبحگاهان
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دوباره میهمانی می کند عشق
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نظرم بسته به روی همه خوبان جهان
آنچه خوبان همه دارند تو تنها داری
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به رویِ نی سری آورده شد ما بینِ محفلها
و خونی میچکد از حنجرش همواره بر دلها
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یارا بیا و جامه ی احرام ده مرا
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دربیابان شب بود تاریک وقتی ماه نیست
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از ازل عشق خدا گربه دلم دارم ازوست
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مستی زعشق آید نی از
شراب دستی
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وقتی گریبان مرا کابوس دل کندن گسست
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دوباره ميهماني مي كند عشق.....
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دلداده ام وعاشق و حیرانی خویشم
درکوی شما در پی ویرانی خویشم
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هر جا كه چو ميخانه، همواره بُوَد دایر
آن ساقیِ سيمين تن، با ناز شود ظاهر
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انگشت نما گشتم در واله و شیدایی
بین نرگسِ فتّانت آورده چه رسوایی
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آن که مي گفتي ز زهد و پارسايي، بي امان
شد هويدا مكرِ او نزدِ تمامِ مردمان
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*تضمین غزل «خواجه کمال خجندی» در مدح امام زمان(عج)
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اي رهبرم سيد علي...اي مجتهد اي تو ولي...باشد نگهدارت علي-ع--....
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اي واي دشمن رهبرم
فرمان دهد جان بركفم
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دشمن بداند تا ابد.حاشا كه ايراني رود.راهي كه كوفي ميرود.
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5)
اي داعشي يا طالبان
آئين حق را دشمنان
اي خصم صاحب الزمان(عج)
ما با شماها دشمنيم
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دخترخوب دهاتی زه چه دلتنگ شدی
رفتی ودستخوش فتنه ی فرهنگ شدی
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آمدی ای مه لقا،اما به ساز ما چرا
آمدی تو،آمدی از عالم بالا،چرا؟
«آمدی جانم به قربانت ولی حالا چرا»
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لیـلی تـو رفت و ای مجنـونِ فـریادِ قـرون
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بـه ظلم آری نخواهم گفـت، آری
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مُردم آن روز...، جوابم « تو برو... » تا دادی
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بینِ خدا و عشق...، حدِّ فاصلِ تو
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