سه شنبه ۲۷ آبان
شعر فلسفی
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هوای مرغ آمین دارد این دل
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این شعر، گواهی است بر اینکه حتی خمیدهترین پنجرهها، هر روز برای استقبال از نور، به شیشه میچسبند
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میان دل و قالب، همیشه فاصلهای بوده است؛
فاصلهای که نه به سلامی میرسد،
نه به نگاهی،
فقط سکوتیس
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غم، مهمان ناخواندهای است که میرود.
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قفس را نه میگشایند،
نه میسازند،
قفس را باور میکنند…
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نقش دیبایی که ما با رشته ی جان بافتیم
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عدم .فرق علم وفلسفی
چون عدم پنهان بود ازجنس نور
لیک در وهمَش نبیند چشم کور
ذره ای درعمق هستی شد پ
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چرا نایستم؟
رازِ ماندن در «ایستادن» است
در «حرکت»
در جاری شدن درمسیر نور
در چنگ زدن به میوه
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«قدح»! مگو سخنِ خشم با سفیه زمان
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کاش می شد سینه را شکافت ، دل را پرواز داد ...
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ابر گریان
باد حیران و سکوت دشت ها خالی ز آهوی های مشک افشان
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* طلوعی دیگر
روزها از پی هم میگذرند
و همه غرق در عادت
بچه ای شیون بودن سر داد
پسری
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باران •
دلم تنگ است و
پای رفتنم چون بید می لرزد
زبانم بسته
جانم خسته
راهی
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* هیچ تا هیچ
در آیینه بخود نگاه میکنم
خسته ام از نرسیدن
از بدنبال هیچ دویدن
از بیدا
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پیدایش جهان .علمی فلسفی
1.ذره ای آتش درون شد پُرتوان
ذره شد آتش فشان دنیا عیان
نور آمد، در دلِ شب
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عشق درفلسفه ی آئینه آمد....
عقل ازقاب آئینه پرید......
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"اینجا،
در زنبورستان ما،
شیرینی هم شرطی دارد
و هر عسلی
از صافی نوازش
چند نیش گذشته است."
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شود از عشق جَری دیو و دد و حور و پری
تو که با نفس پری بر طورِ شیطان بپَری
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به راهِ بادیه رفتم، به جستوجوی حقیقت
به آرزوی رسیدن به چشمههای بصیرت
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* پرستوی تنها
بیکسی درد قریبی ست
که با من متولد شده است
تا زمانی که س
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وطن آن نیست که از خون شهیدان گذری
زیر پرچم، به نفاق و ستمی جان ببری
وطن آن است که دل با دل مردم با
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* بذر و باران
مگر این بذر یادش میرود
آنروز بارانی
که در اعماق تار و تیره
خشکیده ای بود
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با نگاه قاطع یک پژوهشگر: « واژگون است! بنویس دوباره، باز از نو...»
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کدام سیاهی را
به دندان گرفته این آسمان
که چراغهای روز مردهاند...
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پرواز از ایمان آغاز میشود، نه از بال...
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درون کهکشانی از مقولهها معلّقم
بیا اِراده باز هم بِبر مرا از این فضا
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دین،
نه در کتاب است،
نه در کلام،
که در لرزشِ دلِ عارفی است
آنگاه که نامِ خدا
بیصدا بر لبش میل
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ما وارث اندوهِ هزاران شبِ کوریم
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فصل تابستان فرا رسید و...
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وقتی به آسمان می رسی زمین زیرپایت خرد است
وقتی به زمین می رسی آسمان درنظرت بلند است
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ذوالفنون از شکِّ تاریخیِّ من
در سه تارش پیچ و تاب افتاده است
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من اینجا با گلوی زخمی شعرم
که زخمی دیر با خود دارد از تن دادن و تردید
مینالم
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«نه از تبار پیغمبرانم
نه زادهی شعرای سبک عرفانی!
فقط
در سجدهای فراموش شده،
افتادم
و کسی برای
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جهان
به وسعت یک فکر است
هر چه فکرت بازتر
جهانت بزرگتر و روشنتر
من
در این جهان مرموز
هر چه
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پیدایش جهان 5 راه انسان2
چون تفکر را خدا برپا نمود
همره آن خلق انسان ها نمود
باز انسان کرد راه
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چشم بگشا،
اگر هنوز
چشم اندازی هست
که چشم چرانان،
چشم پوشی ات را
چشم داشت می نامند.
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کسی نمیبیند
کسی نمیداند
دربارهی کداممان حرف میزنیم
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تمام هیکل عاشق، سه تار میشود
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قِصه ای خواهَم نِوِشت از سَرنِوِشت
عاشقان رَفتَند و عِشق از سَر نِوِشت
ساحِر
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این شعر تلاشی است حماسی و فلسفی برای پیوند واقعه جاودانه کربلا با دردها و بحرانهای انسان معاصر. شاع
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خیز ای عاقل عمیق اندیشه کن
از ولای حق عدالت پیشه کن
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نسخه فوقفشرده و شعارمانند مانیفست:
《درر عصر کد و سایه، قرص قرمز حقیقت را بگیر؛
عدالت را کُد بزن
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شهر،
مثل فرشی کهنه
زیر پای وعدهها پهن شده.
هر بار که گام میگذاری،
نخنماتر میشود
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من در هزارتوی عمر،
بر مرکبی بیزین،
بیقرار و بیپایان سفر کردم؛
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در قفس آزادم و در آسمان زندانی ام
آسمان شد در قفس آغاز بی پایانی ام
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روزگاری در دلم من شوق فردا داشتم
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مرگت،برگ چناری بود
قرنها پیش از من
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در بی سایگی
خودتهمسایهیخودتنمیشوی
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در کدامین گورستان سرد خفته ای ...
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جنین خیالم را به دار کشیدند ..
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♤♡پسر آسمان و هفت اختر♡♤
سفر اول:اخترشقایق
سفر دوم:اخترخموشی
سفر سوم:اختر راز
سفر چهارم: اخترگذر
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برآن سرم تا از تباهی قصه گویم
ازظلمت ظلم و سیاهی قصه گویم
برآن سرم تا شرح این بیداد گویم
شرح چنین
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گرداب واژهها
ورِ دیگری گشود
ومن
دوباره،
ورایِ هر وری
ورق به ورق،
در جریانِ استعارهای
در ت
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پیدایش جهان 3علمی فلسفی
عالمِ حیوان به آخر چون رسید
جسم آدم در جهان پس شد پدید
این همهِ مُلكِ جها
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ور میرفتم با افکارم
که ناگهان،
از یک ور دیگر افتادم
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دلگیرم از این همه سیاهی ...
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سرگشتگی انسان در برابر غم و بن بست های بی پایان زندگی..
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باری اگر گفتند:
"بگذر"
بگذر
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کاش قاصدکی بودم، در رقص نسیم، نه ارکیدهای اسیر گلدان.»
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باران بزند کاش بر این خاک فسرده
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من سیب نبودم،
انگارهای بودم
از یک سقوط بیاجازه،
بر مدار ناتمامِ
یک سطر پاکنشدنی.
نه در ت
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اندیشه ی مدرنی کز مهدِ خشکسالی است
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دراین سکوت سهمگین
که خواب ها مشوﱡشند
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ازگوساله ای پرسیدندکه توچرادرطشت فلسفه
آب می خوری؟.....
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