شنبه ۱ دی
اشعار دفتر شعرِ یگانه شاعر امیر وحدتی یگانه
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می نهم دل در کف چشم خمار دیگری
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بر خانه خمار چو بانگ جرس افتاد
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خطوط خنده ز رخسار گل گریزان است
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در این دنیای وانفسا تن آسانی نمی بینم
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حریر دامن گل زخم دیده از خار است
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ز نیش خرمگسان یک جهان رنجیدند
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می رسد نیمه شبی پیک اجل پشت درت
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سر را سپردم نیمه شب بر عالم دیوانگان
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گشایشها شده حاصل ز رشد اقتصاد امروز
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شانه بر زلف پریشان میزنم، این بار هم
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کیف کوکَت گشته گویا برقرار، آهسته تر
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وانگه قرار از دل رباید پسته خندان مرا
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دلا ز نم نم باران بهار میرقصد
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خجل شد آینه از پرتو جمالت باز
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دگر ز نام قمصر و عطر و گلاب می ترسم
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اگر آن ترک شیرازی بدست آرد دل ما را
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دختر زیتون برایت می فرستم شعر ناب
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داد بر اموات ایشان ذکر هر صلوات را
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آنکه از گاو نری شیر بدوشد واس ماس
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من آنم کز شعار مرگ بر انسان دلخونم
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از دست تو پیمانه سر ریز قشنگ است
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سر شوریده من هم دگر سامان نمی گیرد
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حال یگانه دائما اینسان نمی ماند
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چه طلب تو را ز جانی که بلب رسیده ما را
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گشته ام دیوانه در زندان عشق
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این عمر گرانبار عجولانه گذشت
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هر چه بادا باد امشب دل به دریا میزنم
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مده بر عالم و آدم مجال و ماست مالی کن
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دعای یا مقلبدن تحول گلدی احواله
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خورد خطی دفتر ایام را برگی دگر
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بیاد گم شده ای در غبار می خوانم
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در دامن صیاد پی دانه خویشیم
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گفتی که بمن نان بدهی نانم رفت
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زنده شد در دل ویرانه من خاطره ها
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دید موسی کودک خُردی دَمِ آزاد راه
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خوشا انکس که دائم با نسیم صبح همراز است
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به شعر نورسی با واژگانی کال می خندم
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شبی در خواب دیدم کوه طور و دشت سینا را
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سرِ داری سرِ یاران برقص آید بزیبایی
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و آنچه میگردد پریشان زلفهای آذر است
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برگ و بارم از هجوم بی امان باد رفت
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باز می آید صدای های های ارغنون
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بسان برگ پائیزی بهر سو می کشانندم
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خواب راحت را ز چشمم مشق آن استاد برد
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از لسان الغیب باز اعجاز می خواهد دلم
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به خال هندوی آن ماهرو نمی ارزد
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خواب از سرم پرید از گرمیِّ گفتگویت
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شیطان بخدا صاحب چندان هنری نیست
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بنگر که از کجا به کجاها رسیده ام
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بزن باران و پر کن چاله ها را
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یا چشم من معیوب و یا که شیشه بدذات است
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ای عاشقان ای عاشقان گشتم عجب رسوای دل
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