دوشنبه ۲۹ اسفند
اشعار دفتر شعرِ یگانه شاعر امیر وحدتی یگانه
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بیاد گم شده ای در غبار می خوانم
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در دامن صیاد پی دانه خویشیم
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گفتی که بمن نان بدهی نانم رفت
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زنده شد در دل ویرانه من خاطره ها
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دید موسی کودک خُردی دَمِ آزاد راه
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خوشا انکس که دائم با نسیم صبح همراز است
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به شعر نورسی با واژگانی کال می خندم
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شبی در خواب دیدم کوه طور و دشت سینا را
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سرِ داری سرِ یاران برقص آید بزیبایی
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و آنچه میگردد پریشان زلفهای آذر است
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برگ و بارم از هجوم بی امان باد رفت
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باز می آید صدای های های ارغنون
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بسان برگ پائیزی بهر سو می کشانندم
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خواب راحت را ز چشمم مشق آن استاد برد
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از لسان الغیب باز اعجاز می خواهد دلم
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به خال هندوی آن ماهرو نمی ارزد
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خواب از سرم پرید از گرمیِّ گفتگویت
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شیطان بخدا صاحب چندان هنری نیست
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بنگر که از کجا به کجاها رسیده ام
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بزن باران و پر کن چاله ها را
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یا چشم من معیوب و یا که شیشه بدذات است
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ای عاشقان ای عاشقان گشتم عجب رسوای دل
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چو نی شکایتی از روزگار می گویم
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