شنبه ۲۹ دی
اشعار دفتر شعرِ آیینه ی سیرَت شاعر ابراهیم جلالی نژاد (نژاد)
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شب طولانی و سردی که دارد_نشانِ جشنی از اقوام پیشین
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سگِ "دست آموزِ" شیطانِ بزرگ_کافرِ صهیون، دَدِ همسانِ گرگ
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خدایا! هیچ چشمی کور نباشه_همی بینا، لیکن " شور" نباشه
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بارِ دگر در دلِ فصلِ بهار_سبز شده شالی به هر کشتزار
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درختان و ردای پرنیانی!...خوشا آن که شمیم ِ مهربانی
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"پدر" در بینِ ما دُرِّ گران بود_غم و رنجَش ولی، از ما نهان بود
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خیالِ واهی از خود, دُور گردان_وگر نه, در لَجَن اُفتی و مُرداب
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پائیزِ دل انگیز، همی رفته خرامان_آن دفترِ الوانِ خزان، آمده پایان
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(رسم یلدا)
شب یلدا و رسمِ خوب و شیرین_به هرمحفل بساطِ خوانِ رنگین
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بامن چو یارِ مهربان، گوئی سخنها_با "خوش بیانی" و متین و شاعرانه
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چه جهانی،پر زفتنه و کین است_زیر یوغ و، سلطه شیاطین است
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درود ای ادیبانِ ایران زمین_سفیرانِ فرهنگِ ناب و وَزین
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بماندم درعجب از خلقت تو_چرا کوتاه باشد عُمرَت ای گل
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دیدم که یکی به چهره ی آراسته_ همواره به شکل ظاهرش می نازید
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بُلَنـدایِ شبـی در قلبِ تاریخ - بنا بِنهاده رسمِ خوب و شیرین
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تا پایِ جان از بَهرِ استقـلالِ کشور
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فکر خدمت بود در راه خدا - هستی اش بنمود بهر آن فدا
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بصیرت بَسـی در مَـرامِ شهید - سعـادت گوارای ِ کـامِ شهید
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ای یادگارِ مادر، خواهرِ نازنینم - نیمه ی جان وتنم، غمِ تو را نبینم
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مردانِ خدا دلاورانه - با عشقِ به حق چه خالصانه
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هموطن هَمـرَهِ من بَهرِ بقایِ وطن است - سَر وجانم به فدایِ وطن وهموطن است
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در کسبِ آزادی و استقلالِ میهن - مدیونِ خون هایِ جوانانِ دیاریم
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ای شهیدانِ به خون غلطان، زِجورِ ملحدان - گشته رنگین چهره ی میهن زِخونِ پاکِتان
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به خاکِ پاکِ میهن و، درفشِ جاودانه اش - به پرچمِ سه رنگ خود، بسی کنیـم افتخار
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پارسی، سـرآمدِ زبانِ دنیاست _ فرهنگ و زبانِ پارسی بی همتاست
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آید از هر سو ، نوایِ بلبلانِ نغمه خوان _ دشت و صحرا پُر شده از عطر گلهایِ جوان
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صفای زندگی، تاجِ سرِ من _ توئی دلسوز و یار و یاوَرِ من
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زِکیشِ خودفراموشان بُرون آی _ خدایِ خود مکن هرگز فراموش
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(مادر) محبت از وجودِ تو عیان گشت - ثناگویت خدای مهربان گشت
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می درخشد در شب طولانی اش نور امید
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ای پرستـار نمونه ، آسمانی خواهرَم __
عاشق خدمت همی سرشارِ احسان و کَرَم
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پیوسته جان برکف به راهِ مهر و ایثار
پاک و صبور و مهربان باشد پرستار
روحِ زلالِ عاطفه ، عشق
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خطّه ای سرسبز و زیبا در جهان
وصف آن هرگز نگنجد در بیان
دشت ودامانش همیشه پُر ز گل
گلشن
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- دلیرانِ وطن
- در عرصه ی کُشتی
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