پنجشنبه ۶ دی
اشعار دفتر شعرِ پوچ شاعر احسان کشاورز
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مرا تنها که تنها دیده اند بی تو
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زار میزد به دلت عشق فقیرانه ی من
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اسیر پنجه ی دریا / رها در تُنگِ تَنگِ تو
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دیدمت باز خاطراتت در سرم تکرار شد
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دست و دلم نمی رود به زندگی بدون تو
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حاصل عشق انزوا است بعد از این اکراه فقط
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نیست رد و نشانی از آن شادیِ بی پایاب
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زندگی مُردن نبود وقتی که بودی
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خانه ات ویران ای که ، خانه ام ویران کردی
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شاید که خدایی نیست بیهوده تلاش کردیم
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روزهای تکراری
لبخند اجباری
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عالمی خواهم جدا از دیگران
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آن لحظه که با لبخند از دور نگاهی کرد
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کِی یاد من از خاطر تو میگذرد ؟
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ای کاش دمی بی تو دگر زنده نمانم
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ویران نمیشد حال من گر پای حرفش مانده بود
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خود رساندم به تو آزار ببخش
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کیست نزدیک تر از من به خودم ؟
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کی فکرشو میکرد، از بودنه با تو، حسرت نصیبم شه
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تا چَشم میندازم تو را هر گوشه ای میبینَمَت
از عاقلی چون من ببین دیوانه ساختی عاقبت
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از بین آدم ها بگو، کی بهتر از تو واسه من؟
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باران نبار
تازه میشه زخم قلب بیقرار
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تنهام و بی هم صحبتی
هر ساله بی تو ساعتی
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یکی از روزای پاییز بود که رفت
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کجاست آن عشق داغت؟
چه شد پس اشتیاقت؟
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حال خوش کوتاه من
کو یار خاطرخواه من کو؟
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دیوانه ام کرد رفتنت
اما هنوز دوست دارمت
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با رفتنت ذهن مرا بیمار و مغشوش کرده ای
این عاشق دیوانه را با غم هم آغوش کرده ای
دلتنگ و بی تاب تو
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ای که با سنگدلی بردی ز یاد عشق مرا
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آمدی تا که غم خود به دلم بنشانی
حال مهموم دلم را تو فقط میدانی
من ندانسته به دام تو گرفتار شدم
تا
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