پنجشنبه ۲۸ فروردين
اشعار دفتر شعرِ خنیاگر ِروزگار شاعر ابوالفضل زارعی
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جمعه جمع رخوت و خمیازه است و خستگی...
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فرزند بهمن ماهم و فرزند سرما...
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دریا شده ام وسعت دریایم نیست...
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سرد است هوا نگاه تو جان بخش است....
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بَر اَبر نظر می کنم او پُر زِ سرشک است...
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گُلِ خنده بر لب نشاندم ولی ...
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این همه بُرجهای غول آسا ....
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تخته سنگِ یکّه ، تنهام ...
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وقتی عاشقم به جسم و جون خاک
وقتیکه خدای مستی میشه تاک...
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برای مُردن در انتظارم اَجل کجایی...
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نبض آوازم تو بودی
واژه پردازم تو بودی....
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تفکیک و جدا شدن اَلَک می خواهد....
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طعم هر ضربه که ضربِ شَست نیست
آخر هر کوچه ای بُن بست نیست...
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ژرفای نگاهت از جنون لبریز است...
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شب تیره و تار ، روی تو ماهِ من است...
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خوابیده بودم ناگهان بر شیشه کوبید
انگشتِ باران...
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تاریخ نشان داده که پُر نیرنگیم....
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آخرین روز خزان بود که باران آمد
باد می آمد و می گفت زمستان آمد...
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ما پُر از مَکریم و نیرنگیم باز
ما دو روییم و پُر از رنگیم باز...
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در نیمه شبی که خواب می دیدم
خوابی که پُر از جنون و دهشت بود...
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بادی عجب وحشی و مست
بر صورتم سیلی زند
با ضربه های بی امان
او ابرها را می دَرَد...
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پشت این خنده های مصنوعی
چیست پنهان شده؟عجیب است آن....
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زخم زد شب به تَنِ روزِ سپید
بوی خون می دهد اشعارم باز...
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در کافه بودم آسمان همرنگل غم شد
باران به روی شیشه ها هی خال می کوفت
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گاهی به ذهنم می رسد بیتی،کلامی
چون آرزو بی انتها و نیمه کاره...
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خطاطم و عاشق بر اندامِ حروفم
با واژه هایم می کنم هی عشقبازی...
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هوا صاف است اما گرد دارد ...
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دردها را چگونه می فهمی
آن زمانی که کُشته شد حلّاج...
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