جمعه ۳۰ آذر
اشعار دفتر شعرِ صاع شاعر شهرام مودب
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تنها جوابِ ما دو تا، یک جمعِ سادهست ...
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موضوعِ انشا صلح بود اما ...
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امشب که شبِ آخرِ تابستان است
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هفت ملیارد پدر-نقطه بلانسبتِ جمع
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تاریخِ منفیِ هزاران سال و اَندی بود ...
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من مطمئنم آخرین جنگِ جهانی
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بر نیمکتی نشسته مردی تنها
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من تازه نعل کرده بودم شعرهایم را
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گفتی که دلقک باش؛ در نقشم فرو رفتم
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یک روز اگر دیدی سوارِ اسبِ چوبی
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گرگ سلطان گشته چون درَّندگی آسان شده
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اگر چه دست و بازویی ندارد
گلویم را دو دستی می فشارد
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خشکیده در این درخت، آوندی هست
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چارپاره، شده نیمایی و صدپاره جگر
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دماوندی شدم پُر اَز گدازه
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همه با یار می رقصند و ...
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چون انار از قلبِ خود خون خوردنم کافی نبود!؟
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ای کاش! گلوگیر شود مالِ حرام
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پیوندِ مقدس شده با سکه عوض
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در خُمِ شیره ای از همدان می افتی
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بر کوچه ی تنگش، گذرِ ننگِ من افتاد
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مریمی در روزه ی هر روزه ام
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کرده طغیان، زنده رودِ خاطرات
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بازار ما بازار چین شد ...... عیبی ندارد؟!
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