سه شنبه ۱۹ فروردين
اشعار دفتر شعرِ یاس شاعر حبیب رضایی رازلیقی
|
|
هر یرده قرا پرچمی گوردیم قاریشاردیم
|
|
|
|
|
با من دراین زمانه کسی همسفر نشد
|
|
|
|
|
حالِ بیمارِ دلم را دید و رفت
|
|
|
|
|
خداوند عالم جهان را چه شد؟
|
|
|
|
|
در سیرت مردان نبود کشتن طفلان
|
|
|
|
|
عشقم از روی هوا بود؟ تو بگو
|
|
|
|
|
شب تا به سحر بر در میخانه نشستم
|
|
|
|
|
بی تو باز گذشتم از آن کوچه
|
|
|
|
|
بر صورت تو بوسه زده خاک بیابان
|
|
|
|
|
" آقا زاده "
.
ای که بر ریشِ ملّتی خندان
|
|
|
|
|
ساقی قدحم پر کرد ، امشب می نابم داد
|
|
|
|
|
گرنباشی چشم بینا را چه سود
|
|
|
|
|
روزها فکر من این است همه شب این سخنم
|
|
|
|
|
منزل کنم بعد از تو در ویرانه ها
|
|
|
|
|
ای که نان را میخوری بانرخ روز
|
|
|
|
|
گوزلریم نن یاش آخور ئوز سزو سامانیم نن
|
|
|
|
|
تک ستاره شیر سرخِ بی اَمانم
|
|
|
|
|
چو شوکران بوده اگر
یه وقتایی همچو عسل
|
|
|
|
|
مادر من مادر من ای همه ی باور من
|
|
|
|
|
گرچه که رفتی و من ، سوختم از این جفا
|
|
|
|
|
ز چشمم می چکد اشکی ز درد سوز پنهانی
|
|
|
|
|
ساقی به میِ نابت ، تا گاه سحر مستم
|
|
|
|
|
ازنسیم صبح گاهان می تراود بوی تو
|
|
|
|
|
به در میکده رفتم امشب
تا زِ ساقی میِ نابی گیرم
|
|
|
|
|
تو نباشی زِ لبم خنده گریزان شده است
|
|
|
|
|
ای قامتی رَعنا گوزی شهلا بویی بسته
|
|
|
|
|
به سحر ذکرِ تو را گویم و آواز کنم
|
|
|
|
|
زخمی تازه بر روی زخمهای کهنه
|
|
|
|
|
خواب غفلت رفته بودم ، بسته شد میخانه امشب
|
|
|
|
|
نغمه ی رفتن زِ برم ساز مکن
|
|
|
|
|
عشق بازی میکنی با شعله ها
|
|
|
|
|
مبندی دل به دنیا ای برادر
|
|
|
|
|
قافله جاکن شده غافل دلِ من
|
|
|
|
|
شبها به کنجی میخزم ، نجوایِ پنهانی کنم
|
|
|
|
|
گیسو به رخ می افکنی ، هنگامه برپا میکنی
|
|
|
|
|
غیرتت را من بنازم همّتت والا بود
|
|
|
|
|
خدا حافظ رفیق
رفته ای تنها ی تنها
|
|
|
|
|
نور ، صدا ، تصویر ، اَکشن
|
|
|
|
|
خبری آمده از ، سویِ صبـا یـار رسید
|
|
|
|
|
از پشت پنجره برف را مینگرم
|
|
|
|
|
بی تو گر رسوای هر میخانه من
|
|
|
|
|
باز شب شد
ساز خود کوک کنم
|
|
|
|
|
حلاوت عشق تو ..تلخ گشته به کامم
|
|
|
|
|
همدم باده نوشان گشتم و دیوانه ام
|
|
|
|
|
حکم یار
دل خوش آنم که جان فدیهٔ جانان دهم
|
|
|
|
|
چشمان خمارت برد دل از من دیوانه
|
|
|