چهارشنبه ۶ فروردين
اشعار دفتر شعرِ اشعار آزاد شاعر منوچهر مجاهدنیا
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درد را مثل خود درد می نویسم ...
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شهر امروز در عزای قهرمانانش می گرید...
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مثل روزهایی که سرشار بودم از جوانی ...
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کبوتری که به خون بال می کشد...
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پرسه می زنم در خواب های نادیده ام...
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صدای زنی شروه می خواند...
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در لایه های انبوهِ باد...
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جام چشم از انگور لبریز است ...
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مهربانی ات را باور می کنم
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آن دشت طراوت زده آن جنگل هشیار...
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که بهشتم ببرد نافله هایت هرشب...
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بر بستر آغوش مهتاب دیگر صدانیست ...
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مارال ، آهوی مست جلگه های ماروس...
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آفتاب نشسته بر سبزه زار ...
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تو با دامنی پُر از شقایق ...
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هُرمِ داغ بر پوستِ زمین ...
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منزل به منزل عمر ما با چشم گریان می رود...
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بارویی دیگر باید جُست ...
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بنگر چه می گذرد به حال و هوای زنده رود !
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و گزمه گانی دریده چشم ...
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به تعفن گنداب نمی توان دل بست ...
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نروییده تا بذرِ اندیشه ای ...
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تا احساس ها را بهتر بشناسم ...
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و با غستان های ات خوار شدند ...
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وقتی پرنده ای زنده است...
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