پنجشنبه ۱۸ بهمن
اشعار دفتر شعرِ رها در خیال شاعر حسین احسانی فر(منتظر لنگرودی)
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همه گفتند ببینید چه مردی شده او
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صدای تیشه ی فرهاد می آید هنوز از کوه
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از سوره ی ظهورت ، سهمی نبود ما را
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یَومٌ علی صدر النّبی یَومٌ علی وَجهِ الثّری
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گلو آبستن بغض است از دست اسارت ها
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بگذار از این به بعد بمانم به حال خود
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دوری ات هرچند دل را غرقِ ماتم می کند
یادِ تو اما برایم کارِ مرهم نمی کند
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از شهر شبها می رود آهسته آهسته
تا مرزِ فردا می رود آهسته آهسته
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اقلیم عشقت در زمین وقتی که جا دارد
دنیا مگر جایی به غیر از کربلا دارد؟
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جغرافیا جایی به غیر از کربلا دارد؟
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آمد دوباره حال دلم را خراب کرد
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لطافت این شعر تقدیم نگاهتان
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دلم برای سرودن بهانه می خواهد
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پر از غوغای آوازم ، بیا و همزبونم شو
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داستان هاست میان من و عشق
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هر که با شورِ علی دمساز می گردد
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اگرچه کنجِ قفس بسته، خسته حال شدم
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وقتی که سازِ خاطره آهنگ می زند
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این شعر از آثارِ خوشِ باده و بنگ است
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معاشران گرهِ کورِ کار باز کنید
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درد لبریزِ مرا بنگر و یک ریز بخند
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ای که سوزِ نفست شعله به افلاک کشید
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(ذو قافیتین)
در بحر عجائب همه مبهوت،کجاییم؟
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دوباره پر زده دل در هوایت ای بانو
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دو دستت را به عرض شانه ام بگشا
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تو برتری ز خیال و فراتری ز گمان ها
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وقتی که سرو قامت و صاحب نظر شدی
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افتاده در سر شورِ تو بعد از مرور یادها
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تقدیم به استاد خوش عمل کاشانی
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آه! بیداری من بی تو پر است از کابوس
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بس که در افکار و باورها به جهل آلوده است
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دور از کنجِ لبت همدمِ صهبا شده ام
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کیستم من؟ قطره ای در حسرت دریا شدن
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ای عشق دگر تا «تو» شدن مرحله ای نیست
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مشک دل سوخته تا دوش علمدار افتاد
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خاموشی شب ست و سوسوی چشمهایت
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نقش چشمان تو در خاطره ها جا مانده
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این شعر از آثارِ خوشِ باده و بنگ است
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دوباره ساعتِ نـــُه شد ، رسیده وقتِ قرار
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تو برتری ز خیال و فراتری ز گمان ها
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امشب بیا و از سرِ خاکم عبور کن
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در خانه ی ما یار اگر نیست مهم نیست !!!
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هستم دوباره راهیِ شهرِ غریب ها
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باید از صبرت بسازم یک غزل مادر بزرگ
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چو دیوانه ای رَسته از مرزها
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می درخشد روی کوه و مهربانی می کند
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رودِ عمرم با سکون یک دم نیامیزد
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با جذبه ی مه روی خود آرام دریا می بری
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