سه شنبه ۶ آذر
اشعار دفتر شعرِ غزلیات شاعر محمد اکرمی (خسرو)
|
|
گر خواری و گر گوهر در خاک روی آخر/گر خادم و گر سرور در خاک روی آخر
|
|
|
|
|
چندیست که این خسته دگر پای ندارد/آبستن درد است و سر زای ندارد
|
|
|
|
|
کین راسِ ریا پیشه ، بر خاک ز تن اولی
|
|
|
|
|
بخوان از کلک من افسانه ی غم/شو از جام نِیَم مستانه ی غم
|
|
|
|
|
چه کشم سبو ز میِ جنان ، چه جفا کشم ز تو بی امان
|
|
|
|
|
یلدا شد و برپا همه جا جشن و سروری...
|
|
|
|
|
(بحر طویلیست غزلگونه تقدیم به شما دوستان ناب)
|
|
|
|
|
این مستی کورانه ز دوران تا کی؟ (ویرایش 1402/09)
|
|
|
|
|
گر که آتش بر دلم انداختی، خوش ساختی
|
|
|
|
|
ای بت من در گذر ، از من تقصیر کار
|
|
|
|
|
گر حال مه و هور ز عشق تو چنان است/خسرو به خطا نیست که دل کنده ز جان است
|
|
|
|
|
کاش میشد که دلم سخت شود همچون سنگ
|
|
|
|
|
ویرایش شده ی شعر سرآب عشق
|
|
|
|
|
شد از دستم همه عمر و جوانی/همه عالم به زجرم در تبانی
|
|
|
|
|
چنان دل را نمودی پاره پاره/که جز مرگم نماند راه چاره
|
|
|
|
|
کامل شده و ویرایش شده ی شعر آواره ی دوران
|
|
|
|
|
آسمان سخت خراب است در آبادی و مردم همه خواب
|
|
|
|
|
زورقی بشکسته ام در دامن دریا رها/گه نسیمی ره گشاید، گاه طوفان رهنما
|
|
|
|
|
ویرایش شده
ای چند هزار ساله از عهد کهن/از آنچه برفت بر تو افسانه بگو
|
|
|
|
|
در هجوم سیل غم مخدوش شد اندیشه ام/آنچنان در خود شکستم که تو گویی شیشه ام
|
|
|
|
|
نسخه مجددا ویرایش شده شعر گوشه چشم
|
|
|
|
|
خسرو اگر شد چامه گو، از بانگ شهر آشوب توست
|
|
|
|
|
من اگرچه خاطی و عاصیم/ تو گذر ز خبط من ای خدا
|
|
|
|
|
خواب دیدم که سیاهی همه جا برپا بود
تن وامانده ی من غرقه به یک دریا بود
|
|
|
|
|
تا شد سخن از عاشق و معشوق بیان/در سینه ی من داد دل از دست عنان
|
|
|
|
|
ای نام تو رمز زندگانی/ای ذات تو اصل جاودانی (ویرایش 1402/09)
|
|
|