پنجشنبه ۱ آذر
اشعار دفتر شعرِ قریبِ قریبِ.. تو شاعر محمد حسنی
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کاش
از سینه ی تاریکی
در ترافیک نبود
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ما
به آن آمال هنوز امیدواریم
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نفسم را
به نفس ات بند بدم
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حجاب تو
کلاهی ست
بر سر گل ها
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ساعت هارا برای چه ساختند
که هر لحظه قرار توست
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تو این خانه کاهگلی
به جز این میز و صندلی
چیز زمین گیری نیست
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از من نخواه با تمام دنیا سازش کنم
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غم غروب من را
نارنجی های پرنده می دانند
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باد دور درخت ها پیچید
عابران به وجد آمدند
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از رویای آز خود
سازی ساختم
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بی دلیل نیست
به ما می گویند
انسان یونیورسال
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معشوق منی چرا که بارید عشق
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وقتی معلول تو
در بیابانی چنین معقول
و مقبول من است
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ماه نام دیگر خداست
که آه را به سینه مقدس کرده
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یا خدای احوال
نزدیکترم کن
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زیر پل بنر شهیدی که می خندید
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تو مثل خواب اول صبحِ مه ای
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ته خط با سر آن چه فرقی دارد
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یک روز هم
وقت یاد بود جهان می آید
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نمیدانم
حیا، بی حیا شده
یا مادربزرگ از یاد رفته
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پناه که می رود
به پناه گاه خوبی ها
..
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به آسمان گفته ام
به ابر ها بگوید..
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پنجره را
تا انتها باز کرد
تا باور
تَنگه ی باریک شک را پهنا داد!
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هر روز بَعد پگاه
در سوزِ بُعد تازه ای می سوخت ، جان
وقتی به حصار می آمدی
در هر پدیده ای
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رعد و برق می زد
ابرها را می برید
باران قطعی بود
که بارید
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می بارید ابرهای باران
بی عار از درب های آسمان
بی خواب شد فکر های پلکان
و بی تاب..
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در حد تو کجا به حدود آید
که در قد تو بجا از وجود گوید
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اسمان پر ابر شد
باران بارید
بعید نبود ببارد
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ای عزیز هم نورد من
هم نشین عشق و آه و درد من
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مِی خورم
از هر حس و هوایی
به قدر گاهی..
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بگو
این نزدیک
چقدر فاصله است ..
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خدا دنیا را
به شادی انداخته..
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جهان در جان آفرینش
چون به مادری والا نگرید
چشم اش روشن شد..
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قله نشین زندگی است
مادر..
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.. این طورِ زندگی شهامت می خواهد..
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.. اما آنکه دیوانه کرده ام
که بار ها می کوبم و
باز پروانه می مانم..
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هوای ماهی بود
حواس تو به ماهی ها بود
حواس من به تو
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قسم به آن حسِ غریب و قریب..
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پُرِ پَرِ آرزوی تو ست جهان
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می سازی
می نوازی
می رقصانی
اما
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هر روز
به هوایی
دام ات را پهن کن
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حال فکر کن، چند
هزار هزار چهره ی نا معلوم!
پشت چهره ی مظلوم
معلوم می شد
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پناه می برم به تو
از این جان
این نیمه ی جان..
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یک اذان فاصله است
خواستن ما
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بوسه ی تو را
از بوسه باران هستی گرفتم
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این بار
حلقه ی اتصال
آویز گوش های توست
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دل را به صورتی
رُخی زِ صورتی گُشایی
دنیای صورت تو باشد!
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