چهارشنبه ۳ ارديبهشت
اشعار دفتر شعرِ پاره پاره های تنهایی شاعر ابوالفضل رمضانی (ا تنها)
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عشق یعنی که بشنوی حرفِ دوستت دارم از زبان کسی
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گویا به حکم حاکم دنیای شمع ها...
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باید صدا شوی که بفهمی هوار را
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کنار قافیه هایم بساط دل پهن است
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سالهایی است که دنبال خودم میگردم...
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لیچار بار قصه های کودکی کردم
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نالیدن اگر مشکلتان بود،بگویید
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دنیا فقط یک مشت تنهایی است
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گویی میان بری به خیابان گرگ بود
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مسمط مشترک بنده و جناب دژآگه
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هرچه می خواهم از تو بنویسم...
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این شعر ها،دوباره قلمدان روزگار
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کارِ "تنها" که شعر بافی نیست/دست هارا برای من بزنید...
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من روی صحبتم خود عالیجناب هاست
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وقتی رسیدم در خیابان برگ ریزان شد
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درون جنگل خشکی که غرق پاییز است/هجوم اره برای هرس نیازی نیست
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تقدیم به سینا دژآگه عزیز دل
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انشای من شروع دو خط درد بیخودیست...
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یک جوان مرگ شاعر تنها/درمیان خودش گرفتار است....
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کار صندووق های شهرم باز/کمکِ بچه های لبنانیست...
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اشک قلم به شانه ی دفتر شروع شد
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شعری من بهمن سردی که خودم ساخته ام....
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گفتم که وای نه عزیزم نمیکشم!
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بنشین برایت چای نعنایی بریزم
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شیشه ی فکر من از سنگ پرانی نشکست/از ترک خوردن و از وصله شدن لبریزم
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دهن شعر تورا واژه ی بد می بندد
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سبز و سر زنده و افتاده ای از ابر بهار//
وقت روییدن در جوست پریشان بانو
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غزل غزل ترانه ای خیال عاشقانه ای
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این دل بیچاره انگاری خریداری نداشت///این همه خر مهره آفت بر تن گوهر شده
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آن شب که مرغ عشقی دل برد از قناری
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گفت آن یار کزو گشت سر دار بلند/جرمش آن بود که اسرار هویدا میکرد...
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تا جنون سر رسیده بود از راه/توی گلدانمان تبر می کاشت
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دارم سلامت میکنم،پاییز اما دیر
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از طعم لبان تو تمامی غزل ها//مبهوت و معلق وسط دایره هستند...
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تا به خود آمدم از عشق فقط حرفی بود/انزجار ظمده و قاتل شیدایی شد
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خورشید هراسان شده از نام خراسان
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ما زاده های کوروش و یوتاب بودیم
ما باده ی انگور های ناب بودیم
ما رنگ شب را در میان قصه خواندیم
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لاینحلی از درد ها بودم/خود را دراین اشعار حل کردم
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با انحنای لام در اسمم/صد ها طناب دار میسازم
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ای کاش شاعر ها نمی مردند/بعنت براین محدوده ی تابوت
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من شعر خود را روی سنگی که/بر رود ره بندد نمی خوانم
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ای جهنم صفت،بهشت برین/چشم ها را غلاف بستن کن
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شاعری که دوباره شعرش را/
جای موهای تو بغل گیرد
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یادت نرود که چتر را برداری/
امروز هوای چشم من بارانیست
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حرمت بغض کهنه را می شکند اشک روان...
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باد ها در صف تقدیر ز گیسوی تو اند...
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بوی سجاده ی خونین کسی می آید
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تخت جمشیدم! عجب مخروبه ای ویران شدی
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چه حالی میدهد شب تا سحر در زیر بارانی
کنارش مینشینی و برایش شعر می خوانی
غزل تا مثنوی،هی چهار پا
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تقدیم به زنان بند بی مهری!
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ترجیح می دادم بخوابم جای لفاظی
انگار او غرق است در این خاطره بازی
من در سکوتی سخت محکومم به اع
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دنیا نیاور این همه دیوانه را دختر
تو پول داری در دهانش نان بگذاری؟
انگار دارد شیشه ات را خاک میگیر
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خنده های من اگر بود
"اگر"
بی تو "هرگز" می شد...
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تقدیم به دوستان شعرنابی عزیزم...
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بنویسید سلام
و بخوانید درود...
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آه...
باران،باز میبارد...
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و فقط چشم به چشمان تو بستم....
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