يکشنبه ۲ دی
اشعار دفتر شعرِ عاشقانه ها شاعر محسن افشار نادری
|
|
پایی که آسمان را می چرد
لابلای زمین به هوا
به مو شک دارم
که از ماست
به بیرون نمی کشد
|
|
|
|
|
من با شرابی که از دهان کسی بریزد مست نمی شوم
|
|
|
|
|
خدا کندامشب
نه ماه باشدنه ستاره
|
|
|
|
|
اینجا همه لحظه ها پوسیده است
|
|
|
|
|
مردی از شاخه آسمان آویخته شد
|
|
|
|
|
هر صبح می سوزم از این بیداری
|
|
|
|
|
در پیچ و خم احساس تو واژه ای پنهانم
|
|
|
|
|
تو شعر می سرایی
با نگاهت
من شاعر می شوم!!!
|
|
|
|
|
من از این قافیه ها دلگیرم
|
|
|
|
|
تو جوهر سپید یک تبسمی
کمی اشک بریز
|
|
|
|
|
سرخی لبانت
ظرافت اندیشه های ناب
|
|
|
|
|
عشق را
وقتی
تو لبخند می زنی
قانونش
اصیل می شود ......
|
|
|
|
|
چشمانت رنگ فصلی است در آغاز من و تو
|
|
|
|
|
از مسیر هر لبخند
میشود شعری قشنگ
|
|
|
|
|
به جستجوی رهایی
گریزگاهی
ز انحصار کلام
|
|
|
|
|
دردی که
مرا در تو می کُشد.....
|
|
|
|
|
ای کاش که جانم برود در تب این خواب
|
|
|
|
|
شده ام شهر بازار ز سوز غم عشق
|
|
|
|
|
بیهوده شکست تیشه فرهاد سرش
شیرین بر آن رنگ و جلا ریخته بود
|
|
|
|
|
این همه رنجی که می کشیم برای نان
کفران نعمتی است که نوشتند پای ما
|
|
|
|
|
شبی دیدم که رویت غرق نور است
دو چشم غمزه دارت پر غرور است
|
|
|
|
|
از سقوط نهراس
خدا همین نزدیکی است
|
|
|
|
|
دنیا
آشفته بازاریست
همچون
شعر من
|
|
|
|
|
پرده بازی شد همه اسرار عشق
پرده چون افتاد پنهانش کجاست ؟
|
|
|
|
|
و من
از سکوت برکه ها
دریافتم
|
|
|
|
|
بر سینه نهم صفای آغوشت را
|
|
|
|
|
توای سرزمین شیران
ای سرزمین عشق
کجاست غرش مردان آهنینت؟
رستم دستانت کجاست؟
|
|
|
|
|
در هوست زنم به جان نقش تو و خیال تو
|
|
|
|
|
ای عشق
تو همان لذت پنهان شده از ناز نگاهی
|
|
|
|
|
ای همه اسرار تو رونق بازار عشق
پرده توبرداشتی سینه من باب شد
|
|
|
|
|
و زمین
از عطش شوق رسیدن به بهار
بر تن سوخته ی
آتش و خون
پیش پای
من
|
|
|
|
|
کاش لبانت هنوز هم
طعم بلوط خام میداد......
|
|
|
|
|
ای عشق تب باده و مستم تو شدی
|
|
|
|
|
باورت هست که اشک تو و آن برق نگاه
بی نیازم کند از نم
|
|
|