دوشنبه ۱۱ فروردين
اشعار دفتر شعرِ صد غزل از کوچه دیوانه ها شاعر باقر رمزی ( باصر )
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من ندارم سحر از آخر این شام دروغ
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یا رب آن فردوسِ موعودِ خماران راه شد ؟
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ما چون فرهاد هزاران بار مُردیم و زنده شدیم
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یاری این سوزی که بر لب دارم از داغ دل است
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دست من در پیش اغیار و خودم . . . . . . . .
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صد واژه از مصیبت با خون خود نوشتیم
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کبوتران برای دانه ای لحظه شماری میکنند
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غم نان خوردن و بی دینی ما کفران است ؟؟
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باصر از تاج شهنشاه لگن میسازند
این لگن مرثیه دولت ساسانی اوست
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من ز خلوص میزنم سجده نه بهر عافیت
گر چه عدو شکسته است پا و دل و کمر نرا
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ای که درمان داده ای بر دردمندان چمن
رخصتی فرما که برگردم به بالین شما
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خفت چه می پذیری بهر مطاع دنیا
کم کن غذای دل را ای دل ورای خود شو
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من جاهل ار که رفتم ره کج چه حاصل از حج ؟
که تو می کنی طی ره التهاب ما را ؟
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درد و الم افزون است آنجا که وطن خون است
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دل ندهم بيش از اين گر دهمت آخريست
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هر معبدی را از ازل چشمی نگهبان کرده ام
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در پیش تو من میل شب تار ندارم
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ساقِ شکسته ام که به مکتب هو مداد شد
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هر شب برای اقرار سیگار پشت سیگار
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زخم زبان مردم سنگی ست بر دل خُم
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بوته درمان شدم وای بر این خارها
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عاقبت از کدام سو می رسی بر من فقیر ؟
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شور و شعفی نبود ، در بزم رفیقانم
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عزلت ما را اگر بینی مپرسی از کجاست !!
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آلاله ها و سوسنها مدلینگ شده اند
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صلا دادیم و کس نشنید بیا افغان من بشنو
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من ز اشکِ شمع خویش آتش کشیدم خویش را
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آب خضری داده دستم شاه خوبان بی نظیر
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امشب بهاى لانه، دام است و آب و دانه
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دفتر هر آدمی بسته شود با دمی
باز دمی می برد خفته و بیدارها
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با لبهای تشنه و خشکیده
تیمم هم نخواهم کرد
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من زمینی گشته ام در دیده ام نان نیز دام
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پرگار به تنگ آمد و آن لحظه کم آورد
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فصل گل با بوسه ی شب زنده داران باز شد
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گفتم که چیست غم جان گفتا ز بی کسی ست ؟؟
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دل اگر رنجانده ای غمخوار می خواهد چه کار ؟
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چراغ خانه چون خاموش گردید
زسینه آه تا افلاک برخاست
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بگذار از خم ابروت قدح بر گیرم
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اهالی سرزمین خشکسالی فدائیانِ فدک
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الهي چشمه خورشيد سرخ است
لب ناهيد ما ناديد سرخ است
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مرگ بر انسانهای خارپرور
و گلنشناس!
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در انتهای آغاز دارم هوای پرواز
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در بند زر و سیمیم آخر به چه معنایی
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همه بر خاک سپید و جامه ی پاک سپید
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یکسره در شرب ما عکس جوانی فتاد
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سیب فردوس نخوردم که چنین گمراهم
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دارم هوس دیدن یار از لب دیوار
اما دگر امیدی به دیوار ندارم
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آری از روز ازل دیده ی ما بارانیست
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کی به سامان می رود پیمانی از پیمان کج؟
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محرم چشم منی در شب نابینایی
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برو ای دختر رز بوسه بر آن جام بده
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یارب این زخمی که بر دل مانده درمانش چه بود؟
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بر نمی گردم دگر از کیش و از آئین تو
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هم لذت کلامی، هم ناسزای ذلت
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مستیم و در تباهی، کو طبع پادشاهی
این طبع در به در را، چون سیزده، به در کن!
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غزال چشمهای تو، خیال هر شبم شده
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به شهرت آمدم لیکن،ندیدی غصه هایم را
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ای شاه جهان نقش تو در جانم باد
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بهر ما در وطن آثاري بجز درد نبود
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آنجایی که تخیل و توهم،
هوشیاری را به تمسخر نمیگیرد.
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عمرم آخر شده بی منت و بی ناز بیا
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صحنه ى بازى ما جايگه خوبان است
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نمیدانم که بی تو کیستم من ؟
اگر آنی نباشی نیستم من
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بیا حق را به هق هق آشنا کن
به هق هق قهقهستان را روا کن
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بردند جمعه بازار سیگار پشت سیگار
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كدامين آيه ازمنبر به تحريف آمد از دفتر
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كه جان از آيه قرآن بري شد
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