شنبه ۲۹ دی
اشعار دفتر شعرِ غزلیات شاعر رضا رضوی تخلص (دود)
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چه فرداها که می دیدم برای خویشتن در خواب
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می شکستی به یقین بودی اگر جای من و
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خاطراتت همه در خاطره ام شیرین است
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نمی دانم ولی حس می کنم یک عمر سربارم
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ای آتش افتاده به مایملک عمرم...
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شاید که باد ولگرد با دست های لرزان
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ما نسل سال پنجاه تا اولای شصتیم
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سینه بر سوختن افتاده دویدم بسیار
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اینبار پلنگ تو رسیدست به ماهم
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چه ها کردی تو با روح اسیر التهابم که
به احساس غریب باغ در پاییز می مانم
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آتش زده چشمان تو خلوتگه ی جانم
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شاید اگر میخانه ها را می گشودند
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تو پژواک نخستین بوسه از لبهای حوایی
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از تمام شهر دلگیرم ، تو حرفم را بفهم
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رِزقِمان را در مسیر آسمان دزدیده اند
اهل ایمانی که بر ایمانمان خندیده اند
این مسلمانان ظاهر ساز اه
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خواب شیرین تو را دیدم غزل از یاد رفت
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ز گندمزار این دنیا به ما نانی نمی آید
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ویران شده ام اما ویرانه نمی مانم
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باغمان برگ و بَرش ریخته اَکبیر شده
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از این امروز و فردایم دلم یک دوست می خواهد
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واژه در واژه احساس پریشان شده ای
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باغ در سایه ی پاییز ، خدا رحم کند
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فرصت نشد برایم از زندگی بگویی
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در حبس ابد بودم ، از بند رها گشتم
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موهای تو را باد چو آشفته نماید
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ای عاشقِ دلداده یِ آزاده یِ سرمست
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سهم مان خار از این مزرعه ی گل شده است
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با عشق اگر بر سر پیمان شده باشی
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نسل ما سوخت نه از جنگ نه از خمپاره
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هر چند سر پیری این معرکه گیری ها
ته مانده ی حرمت را از من ببرد ساده
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این قرن بود قرن فروپاشی انسان
یک لکه ی ننگی به تمامی قرون است
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دامن اگر کشیدی از دست من به یکبار
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آینده ی زیبایی در طالع نمی بینم
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امید وصالی به این فاصله ها نیست
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شعری برای ماندن در دفترم ندارم
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تا مرز جنون رفتم آنجا که شدم خسته
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دل شکسته ست به بد وضع فلاکت باری
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با مرگ گلاویزم با زور نمی آیم
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من که یوسف نیستم اما خدای ما یکیست
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هوای پر زدنم هست پری نمانده به بالم
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از میکده چشمت دل مست و خراب آمد
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با بند جنون رد شده از شعله ی آتش
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دلگیرم و از دست خودم هم گله دارم
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من مانده ام این قصه شبها به که گویم
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بی تو حال من شبیه عاشق بی دست و پایی
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چطور آخر به مژگانی نمودی رخنه در فالم
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هوای یار کردم من ، هوای حال و احوالش
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شبیه برگ پائیزی که افتادن به تقدیره
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در میان اشکم و آهم تقلا می کند
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عید است بارالها بر ما ببخش خطا را
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هوس نگار دیگر به سری رسیده باشد
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در معرکه عشق چو سرباز پریدم
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هر کس که به عاشق خبر تازه رساند
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زندگی قانون تکرار است از بر می کنم
بعد از این در زندگی تکرار کمتر می کنم
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گرچه عاشق نیستم ، اما رفاقت می کنم
محضر عشق است و من گاهی جسارت می کنم
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