يکشنبه ۲ دی
اشعار دفتر شعرِ ساعت بی قراری شاعر کبرا مینائی جاوید(مینا)
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مملو از شعرم
پر از حرفها و بیت های تکراری
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پیامبری شده ام در قبیله ای دور
که ایمانم را کفر می دانند
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وبه قاعده ی عشق تا بلندای خیالت
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دیگر چه فرقی میکند کجای این جهان.....
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این شعرها سند دلدادگی من است به تو...
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هر شب
قرار عاشقانه دارند واژه ها
به یادت،
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گاهی باید کوله بار علاقه ات را جمع کنی....
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امشب درون سینه ام بنشسته آهی
عالیجناب شعرهایم رو به راهی؟!!
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به انتهای دوست داشتنت میرسم
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سربر شانه های خسته ی روزگار
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فنجان به فنجان این غزل هم شور میخواهد
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بعضی از آدم ها، یک جور عجیبی دوست داشتنی اند
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شبها که می گیرد دلم رخت تورا تن می کنم
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هوایی را که تو
در ان نفس میکشی،می بلعم
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این همه عشق و دوست داشتن
پیشکش قلب مهربانت
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کوه میشوم که بایستم
پا به پای"نبودنت"
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انگشت هایم به وجد می آیند
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پرت میشوم از بلندای خیالت
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بعد مرگ مغزی ام قلب مرا اهدا کنید...
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باران
خواب از نگاه پنجره میگیرد
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پا به پای واژه ها
مرا در آغوش میکشد
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ببین
چــقـــدر کم دارمت....
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سرد و غمگین ام،
شبیه آهنگی روی گرامافون....
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فنجان وفال و قهوه تکراریست....
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من غباری پر از غم و دردم
روی آیینه ی ترک خورده
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عشق را،
کنار شمعدانی ها کاشته ام....
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......ونقطه چین های
پایان هر شعر،شروع دلتنگی.....
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قدم زدن
در یک عصر پاییزی،
کنار تو
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وجودم درد میکند
از این همه درد.....
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دیوار به دیوار
تا خیالت قد میکشم
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عبور کن
از لابه لای حرفها
این نیامدنها به "تو "نمی آید
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هنوز که هنوز است
ایستادن تنها فعلی ست
که در دهان من صرف میشود.....
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خرداد
زلفهایش را به نسیم بهاری میسپارد.......
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این شعر را بخوان
وبیا دستم را بگیر......
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گاهی
پنجره ی خیالت را
سمت من باز کن
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بی تابم
مثل دریا
که بی قراریش را........
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این بار که به شعرهای من میآیی......
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دلم میسوزد
برای زنانی که تمام رویاهایشان را.....
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از ابتدای نابودی می آیم تا به انتهای هیچ خود برسم
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بیا و غبار سالهای
نبودنت را از تمام وجودم بتکان.......
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آدم ،گاهی دلش
یک پیاده رو میخواهد.........
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شعرهایم را
به حراج خواهم گذاشت......
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