دوشنبه ۱۱ فروردين
اشعار دفتر شعرِ کلک عشق .. شاعر جواد مهدی پور
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نوشته ای که بیا بیقرارِ هم باشیم ..
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همّتِ پیمانه از پیمان من افزون تر ست ..
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در حجابم همچنان ، با آنکه بیرون از خودم ..
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عشق ، عقلِ هفت خط پیمایِ مشرب دیده است ..
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مهر خاموشی بزن ، گنجینه ی اسرار باش ..
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بی سر انجام ست اینجا گفتگوی عقل و عشق ..
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دیده ی آیینه از سِیر و تماشا فارغ ست ..
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پیش اهل معرفت ، آیینه را حاشا نکن ..
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بارِ سنگینِ هبوط ، از اعتبارم کم نکرد ..
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فریاد کن آوازه ی القدسُ لَنا را ..
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دلیلِ راهِ نپیموده ، ساربان باشد ..
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صد هنر در شیوه ی شیرین دهانان دیده ام ..
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تهمت دیوانگی بر عادت عاشق ، خطاست ..
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رازِ سبزِ رستگاری ، دل بدست آوردن ست ..
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سیر چشمی با خودش گنج قناعت آورد ..
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عهد کردم تا نریزم آبروی دیگران ..
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غیر از عبرت ، گنج در دولتسرای دل نبود ..
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بی حجابی در گلستان ها فراوان می شود ..
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گوهری نایاب از جنس تو پیدا کرده ام ..
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آه دلسوختگان ، صاعقه ی سوزان ست ..
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آن عقل که با عشق در افتاد ، بر افتاد
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هر کس که در آیین سخن رنج قلم داشت ..
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غم و شادی به هم آمیخته در قابِ جهان ..
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جهان ، دار فنا باشد تن آسایی نخواه اینجا
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سخت میگیرند مردم دست های نرم را ...
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دامِ نهانِ دنیا ، در گنج ، آشکار ست ..
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دلم خون ست از نا دیدنی هایی که می بینم ..
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ما چرا از بد گمانی سهمِ هم را می خوریم ؟ ..
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در قاب سبز عالم از نقش های فانی آیینه وار بگذر ..
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نفس در سینه از داغ جدایی باختن دارد
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بارها می شکند شیشه ی میخانه ی عشق
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فلک ، با خنده ی هر زخم ، خنجر می برد اینجا
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با گناه خود حجاب شرممان را می دریم
دست می یازیم بر شرم حجاب دیگران
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عاقلان باشند ، فـــرزند زمان خویشتن ..
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شــــور دل را بر در فیض نمکدان بسته ام ..
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قلم می گرید از روزی که من سوگ پـدر دارم ..
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بیشتر آزادگان باشند در جویای کوه ...
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شیر نر بی جا نمی بالد به یال خویشتن ..
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در دل هر ذرّه باشد آفتابـــــــــــی در میان ..
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عشق تنها راه بی پایان تسخیر دل ست ..
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فکر اندک بهتر از یک عمر بی تدبیری است ..
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چون صدف درسینه یک دل مثل گوهر داشتم ..
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عمر چون کشتی ست بر آب روان زندگی ..
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قامت خود را نباید پیش هر کس خم کنی ..
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ابتدای عشق در دنیای ما دیوانگی ست ..
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در دل آیینه ها راهی برای کینه نیست ..
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با محک می شد عیار زر زمانی آشکار ..
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از شراب سرخ لب های تو مستم تا سحر ..
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چشم عبرت باز کن حالا که بینا نیستی ..
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عمر خود را صرف عشقت ساختم بی فایده ..
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نیست هر خود کرده را تدبیر ، ما خود کرده ایم ..
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سینه ی بی کینه ، مانند رُخ آیینه است ..
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زنده می ماند کسی که می برد نام بهار ..
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تا به کی با این مسلمانی به دین پرداختن ؟ ...
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عطر خالص می رساند رنگ و بوی خویش را ..
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مرا از سادگی هر کس رفیق خویش می داند ..
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معنی آزادگی آسان نمی آید به دست ..
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حرف حق گفتن به قتل خویش فتوا دادن ست ..
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سهم ما را باغبان از جانب خود می دهد ..
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اگر از آشنایانی ، نباش از آشنا غافل ..
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آه را چون لاله درلای جگر پیچیده ام ..
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مرغ زیرک می کند پرواز از دام قفس ..
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یاد تو از خاطرم خواهی نخواهی می رود ..
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دل از من می بری وقتی خیال انگیز می آیی ..
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من به آن دشنام دادن هایت عادت کرده ام ..
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گل نمی روید در آن باغی که باشد شوره زار ..
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من از صیاد بی رحمی که جان را جان نمی داند هراسانم ..
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ماه ، هر جا هست آنجا آسمانی می شود ..
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در سینه ی پر درد ، کمی آه نگه دار ..
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اولین محراب عالم زیر ابروهای توست ..
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با توکل هیچ کس در زندگی گمراه نیست ..
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هر چه بی نظمی ست ازآثار بی فرهنگی ست ..
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ساده لوحان بیشتر در عاشقی دل می دهند ..
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آبرو را " آه " از آیینه کامل می برد ..
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از فروغ عشق در میخانه ها ادراک سوخت ..
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رود اگر هم سفره ی دریا نباشد رود نیست ..
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عقل را با عشق در قاموس دیدن مشکل ست ..
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ماه را در برکه مانند گُهر می دارد آب ..
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عقل بر دیوانه لازم نیست نوعی آفت ست ..
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زنده ی عشق ست هر مرغی که در دام بلا ست ..
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