پنجشنبه ۲۸ فروردين
اشعار دفتر شعرِ شب های مهتابی شاعر مهدی تنهائی
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امشب ای مه همره مهتاب زیبا آمدی...
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قول و قرار عاشقی...گفتی تو یار عاشقی...
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شد بهار و تازه شد دنیا برای زندگی...
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باز می آید بهار...و دل از غصه رها می گردد...
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آخر پاییز است...وشبِ دراز و طولانی عشق...
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تو را مانند جان دوست باید داشت...
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ای تو پاییز پر از رنگ و نگار...
دست خود از سر این دل بردار...
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و تو پروانه ی زیبای اسیر...به زبان آی و بگو...به چه می اندیشی؟!...و چرا تنهایی؟!...
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شکرگویم خالقی را که قسم...می خورد او بر قلم...
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ناز کم کن دلبر گستاخ من...
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رفتی و این قلب رنجورم چنین...
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عاشقی سر گرمی یا که یک بازی نیست...
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دلبرا با عاشقت کم ناز کن...
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جان جانان لایق وابستگی...
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تا به کجا کشانیم...ازسر ناتو انیم...
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نازشست آن نگاه...
وای از چشم سیاه
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تا شود موقع دیدار و قرار...
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وه چه آشوبی بر این دل می زند...
این سکوت و خلوت آرام شب....
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من از بیگانگان عبوسی می ترسم...که هماره در کمین نشسته اند...
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ای معلّم عشق و شوری...مشعلی از جنس نوری...
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بهترینم مهر در دستان توست...
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من تو رادر تیک تیک ساعت کنج اتاق...
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صورتش زیر نقاب، خوب پنهان کرده بود...
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گوییا پر وا نه ها هم عاشقند...
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آری از چشم تو انگار مرا...حس یک عشق عجیبی جاریست...
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آمدن سخت نبود آنکه عاشق باشد...
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ساقیا پرکن لبالب جام را...
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از چه گویم، ماه با زیبائیش....غبطه بر آن صورت ماهت خورَد.
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باز دادی خرمن مویت به باد....
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ما صبوریم صبور...دل به طو فان حوادث زده ایم...
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مرگ اسفند و تولّد بهار...
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امشب از شوق تو ای جان؛ باز بیدارم...
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وقتی از راز دلت می گویی...
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نازنینم...
پا نهادی در ره عشق؛ اگر...
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جان شد از عطرتنت هر لحظه مست...
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سن سیز گوزلیم اولدی حالیم زار و پریشان...
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داد از زلزله ی یاد تو داد...
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چه عجیب است غروب خورشید...
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هرچه از عشق تظاهر کردی...
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باران را دیدی چه مشتا قانه می بارد....
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خسته ایم خسته از شبهای سرد...
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روزگاری که دلها خسته اند...
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کوچه ها تنگ و دلا بی طاقت...
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من همیشه باورم با عاشقی بیگانه بود...
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فصل پاییز بگو یادت هست...
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عجب رازی در آن سیب است...
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ماه شو ای نازنینم، ماه شو.....
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من شدم در قفس تنگ دلم زندانی...
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