شنبه ۴ اسفند
اشعار دفتر شعرِ دفتر نخست شاعر اصغر زند
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دست نحسی شانه زد زلف پریشان وطن
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مار اگه هزار بارم پوس بندازه بازم ماره
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صبح زیبایت بخیر ای پیر مرد
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سلام ای جوانمرد آزاده ای سرو پیر
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یقینی کاملا مشکوک
و شکی از یقین لبریز
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گفتگو نه، بلکه نومیدانه هذیانی پر از حسرت
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ببین به روی شانه ام نشان بار روزگار
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ای عجب بازار داغی دارد اینجا اختلاس
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بیدار شو از خواب که چیزی به سحر نیست
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چرا کسی بر این سقف سیاه...
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فارغ از خوب و بد گردش ایام به ناز
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در هوای مه آلوده ی گرگ و میش غروب
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هرچند که دور از تو شده راه عبورم
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با این همه پیدایی و پنهانی رویت
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بویِ خون می دهد این خاک و درونش جاریست
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ای حرم پاک تو نقطه ی پایان عشق
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هنوز از عمق نخلستان صدای ناله می آید
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در این جای از هر طرف بیکران
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محکومیت تجاوز بازرسان سعودی به دو جوان ایرانی
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در انبوه این صورتک های سرد
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من خوارترین خار بیابان نیازم
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در اینجا به هر گوشه دیوانه ای
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هبوط ناتمامی سهم انسان می کنند اینجا
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چه بی اندازه امشب ماه غمناک می بارد
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در این زندانِ هر سو روبرویم سنگ
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اگر سعدی افتد گذارت به کیش
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نباشی مرغ دل ببریده بال است
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تو نه آن جرم پر از حفره ی بی جاذبه ای
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لنج متروک حیات، روی اقیانوس مرگ
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چرا غصه چرا دلشوره داری دریا
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در این بیکران دشت خاموش و سرد
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نگران می نگرم سوی افق / که غروب آمد و باز
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خفتن بی دست و پا در زیر تانک
به که وامی را طلب کردن ز بانک
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من امشب در هوای تو غمم را زار می گریم
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صدای زوزه ی آواره بادی خسته از راندن
میان کوچه های شهر ویرانه
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