يکشنبه ۲ دی
اشعار دفتر شعرِ آینه ها بیدارند شاعر جواد مهدی پور
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جوهرِ دلدادگی در دانه ی تسبیح نیست ..
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چشم ، چون آیینه از آلودگی ها پاک دار ..
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باغِ طاووس ست عالم در نگاهِ آینه ..
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سزاوار ست جرمِ بوسه دادن را ببخشایی ..
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روزیِ بی رنج ، تخمِ رنج می کارد به دل ..
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مُهرِ خاموشی زدم بر دور باشِ هرزه گویان ...
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عشق را دیوانه ها در آینه رو کرده اند ..
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بخواهی یا نخواهی ، درد جا وا می کند در دل ..
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غصّه در دل مثلِ زر دارم برای آینه ..
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بهارِ حُسنِ تو در باغ ، خویِ سرکشی دارد ..
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هر درد که دل می کشد از زخم زبانی ست ..
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عشق را وقتی تراشیدند ، سنگِ کعبه شد ..
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شوکتِ شاهی به آسانی نمی آید به دست ..
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شرطِ آزادی از این زندانِ تن ، سرگشتگی ست ..
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نمیرد آنکه با یک جرعه تعمیرِ دلِ ما کرد ..
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بگذر از گفتار خالی ، بر سرِ کردار باش ..
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عشق ، روزی اهلِ دل را میکند بیمارِ خود ..
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جان و دل را می دهم تا دلبری پیدا شود ..
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عقل در دامانِ داغِ عشق کامل می شود ..
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حرفِ حقّم ، از قلم بی اختیار افتاده ام ..
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خوابِ نازک از صدای آب سنگین می شود ..
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در مهرورزی مثلِ آن خورشید زرّین چنگ باش ..
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پرده بر می دارد از خود در تجلّیگاه عشق ..
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نیست ممکن عقل را با روحِ عشق آمیختن ..
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راست گفتاران ، جلودارِ علومِ عالم اند ..
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بی سر انجام ست راهِ عشق بر دیوانه ها ..
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تازه فهمیدم چرا لب های تو بوسیدنی ست ..
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گوهرِ خود را فدای سکّه ی غلطان نکن ..
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عشقِ پنهان ، موجبِ روشن روانی می شود ..
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عشق ، از دامانِ پاکان بر دلِ هموار ریزد ..
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دل برای سکه ی کم قدرِ دنیا خوش نسازم ..
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چشم ، از آداب حیرت گوهر افشانی کند
زخم نتواند عنانداری کند خوناب را
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