چهارشنبه ۱۷ ارديبهشت
اشعار دفتر شعرِ شعر زیتون شاعر مستانه دادگر (ماهور)
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دور کعبه را نگشته ام
خدا
در کشتزارهای تنم
گل میدهد
و هر شب
برایم بالشی میشود
از شب بوها
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انزوا ، جریمه ایست تکراری !
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ماهیان قرمزمان...قفل شدند بر نوروز کودکی مان
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آیا در سکوت سینه ام هستی؟؟؟
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و نوشتن ...نه واژه میخواست...نه سواد.....
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مانده ام....وقتی که هوای پرواز را بر آسمان کشتزار ما می دوختند....
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باز می گردم
اما......
بالهایم پرواز را در افق پاره پاره جا گذاشتند......
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تشنه ام......تشنه به دوباره آمدنت.......
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ببین....من مشتی آب و خاک و رنگم...همین!
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روزی نقاب از چهره برمیدارم..
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روزی می آیی.....خواب از صورت تمام ثانیه ها می پرد
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وقتی که برف آمد در بستر زنانه ام......
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میان واژه های آویخته بر لبانم..؟
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هر جا که باشی سرزمین بی نامم برایت گل میدهد
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دستهایت از سنگ هم که باشد
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هراس مرا آشتی پنداشته ای؟؟
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روزی با آن حروف سبز جنگلی ات
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میان سرود سرانگشتانت بر حصار سکوتم
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ما دختران پاورقیهای پنجاه
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من با تمام زنانگی ام.....
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من آن ساحر شکست خورده ام....
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باید گله کنم ز لیلی......
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نقشه ی قتل مرا بر صلیب سینه ات کشیده اند
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از ویتنام قلبت که برگردم.....
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باور کنید هنوز پس از چهل سال به «زن »بودنم عادت نکرده ام
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پدرم دستهایش بزرگ بود و آسمانش بلند......
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گنجهای تنت را به دیگران بسپار
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هر گز تو را اینگونه پاکباخته ندیدم!
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دوباره شانه میزند طلوع بی مسیر تو
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از ساقه های گندم
مرثیه های گرسنگی می روید.....
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قبیله_انگور_بت_سنگ_کفن_حسرت_تاریخ
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سراغ تورا از قبیله ی شعر میگیرم
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افتاده ایم در عصیانی به نام زندگی!
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اجاق کدام شاعر را گرم میکند چشمانت؟
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