چهارشنبه ۲۷ فروردين
اشعار دفتر شعرِ پروانه ها زود میمیرند! شاعر فاطمه ضیاالدینی
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دانه می ریخت / شعر می خواند / و آسمان می گذاشت بالای سر پر
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فراموش می شوم / مثل مُهره های فیروزه ای گلوبندت / مثل چشمه ای که خشکید
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خورشیدی سرگردانم/.../ گُل آفتاب نگردانم!
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تنهایی ام/ کلاف آخر مادربزرگ
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جا ماندم/ زیر آوار چهارخانه های پیراهنت
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سرم رفت!/ تمامش کن و بیا/ ساعتی در من
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کاش قبلِ اُفتادنم/ مرا در آغوش بگیری/ مرا ببوسی
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خنکای صبح/ آدم دلش می خواهد/ هی به خودش "عشق" تعارف کند
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می توانی تصور کنی/ حال زنی که/ در تمام لباس هایش می گرید...؟!؟
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به خلوت کدام کوچه پناه ببرم/ باید از کدام سو بروم/ تا تو را از یاد ببرم؟!؟
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چقدر حس/ پُلی فرسوده در من است/ پُلی که سالهاست رودش خُشکیده
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تنهایی/
دستان سرد دختری ست
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با خودم نشسته ام و داغ داغ/ چای می نوشم
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آری/ پرنده ها هم پیر می شوند/ و از فصلی به بعد/ دیگر هیچ کوچی را پرواز نمی کنند
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تمام دنیا را/ در همین فنجان کوچک هم می زدم/ و هنوز لب به قهوه نزده
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همیشه/ در تمام قطارهای جهان/ مسافری هست
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می خواستیم/ جَنگ نباشد و فقر هم!/ موروثی ست
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اینها شعر نیست/ لهجه ی "دوستت دارم" من است
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اینکه هر صبح/ عطر شمعدانی های خیس/ مرا از خواب بیدار می کند
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می روی/ به سقف آسمان خدا هم اعتباری نیست
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تو که رفته ای/ پس چرا شمعدانی ها/ هر صبح جوری زیبا می شوند
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هیــــچ ندارم/ فقط دوستت دارم/ فرزندی هم ندارم
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باورش کرده ام!/ صدایش نزدیک است/ اما خودش دور
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حالا که نیستی/ به زنده ماندنم اعتباری نیست!/ برایم خورشیدی بفرست
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خوشرنگ ترین سیب درختم بودی/ چیدمت/ از دستم افتادی
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چند روز دیگر/ خُرمالوها می رسند
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هر چیز خانگی اش ماندگاری بهتری دارد/
نـــان خانـــگی/
شیـــرینی خـــانگی/
دوستــان خــانگی/
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آسمان کویر/ بی خورشیدتر از آن است / که در کتاب ها می خوانیم
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این گنجشک ها که می بینی/ گنجشک نیستند/ منـــم...
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عاقــــلان را بــــگو/ هــــفتاد ضربه شــــلاق آمـــــاده کـــــــنند...!
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خواب دیده ام که نمی آیی/ و حالا/ قشنگترین لباس آبی ام را پوشیده ام
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روزهایی که بودی/ دست هایم / بوی "دوستت دارم" می داد ...
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همین که امشب/ روی میز شام/ برایت بشقاب نمی گذارم
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شــبیه هـــواپیمایی کــه/خـــبر سقـــوطش/قــبل از خــ
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مـــن تنـــهایی ام را آورده ام/ دریـــا غروبـــش را...
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از دوستت دارم هایت/ لحافی چهل تیکه می دوزم
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غمگینم/ شبیه پرنده ای جامانده از کوچ/ مدام به تو فکر می ک
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کـــــــــوه/ مردِ بغض های شبانه ام نیست
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بخدا/نام تمام این فصل ها تنهایی ست/ مگر
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زیــبا و آرام و قــشـنـگ/ به من بـرگرد/ همانطور که/
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هی سر برمی گرداند/
تنهایی ام/
در پی صدایی
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خواب این شهر لعنتی/ سنگین است/ موهایت را نباف بانو
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باد آورده را/باد می برد/کمی نزدیک تر بیا
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از سفرت/ چمدانی پر از گریه/ جا ماند
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برای باور این درد/ زخمی تازه تر می خواهم
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خنجری / مانده در / قلبمی...
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دانه و سنگ/ برایش یکی ست/ جَلد که شد
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برمی گردی به من/ شبیه دریا/ برای به آغوش کشیدن
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گلهای دامنم را/ هزاربار شمردم/ خیلی کم اند
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درخت بی پرنده/ یا /پرنده ی بی درخت/ فرقی نمی کند
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به درختان فکر می کنم/ و از دفترم/ جای شعر
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جای تکه ای لبخند/ به چوب لباسی این شعر/ لاجرم...
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از دوستت دارم هایت/ زخمی می ماند در من
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چه عاشقانه ها/ که در سرم خاک می خورد هنوز!/ روسری ام را بت
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درختان/ از دوستت دارم تبرها/ می میرند!
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بانو/ چقدر چشمانت / شبیه غمگینی شعر بلندی ست
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باد/ گلهای ملحفه و بالشم را/ با خودش برد
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تنهایی ام/ دختری ست با چشمان قهوه ای/ افتاده از چشمت
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آدم های خسته/ رفتنشان را جار نمی زنند/ فقط/ طوری می روند
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حالا/ همه می دانند/ که تو رفته ای/ جز من
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به قرص های اعصاب/ اعتباری نیست!/ شعر...
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حالم را نمی پرسی/ این روزها چقدر/ شبیه نامه ای هستم
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بهار شاید/ دامن بلند گلدار دختری ست...
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شکسته ام!/ شبیه زنی جامانده در / چهارخانه های تو در توی پ
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کمد لباسی ام را/ قفسه ی کتابهایم را/ و تمام اتاقم را مرتب
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خاطره ها/لطفا کمی دورتر بایستید
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چقدر این شعر/ زندگی را/ کم دارد/ تا بجای دلتنگی
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چهار گوشه ی اتاقم/ بهتر از/ شعر
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پرم از ایستگاهی/ خالی از تو!/ که نه آمده باشی
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امروز صبح/
به گمانم کسی/
تمام جاده ها را جمع کرده
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در روزنامه ها/
ردی از من و دلتنگی من نیست
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دختر غمگین حواس پرتی ست/
که به گمانم/
خنده هایش را/
در
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باد را بگوئید/
گلهای دامنم را کجا می برد!؟!
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باید بروم/
با آنکه می دانم/
در من/
زنی عاشق توست
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بعضی آدم ها/
خود زخم اند!
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