دوشنبه ۳ دی
اشعار دفتر شعرِ غزل شاعر نادر مسلمی ( ن م قطره )
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گِئتْمَه اِیْ سَرْوِ چَمانیمْ گَلَه جَکْ فَصْلِ باهار
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بزن بر دَف تو ای مُطرب که شاهی سرنگون آمد
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دریغ از چشم جادویت که بیند یک نظر ما را
به نرگس شِکوه آرم من خُمارین چشم شه
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گر کام خود از عشق تو یکبار نگیرم
بهتر که در این عشق به صد بار بمیرم
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منی کز شوق دیدارت ز هر بیگانه دل کندم
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دریغا که از غم رهایی ندارم
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گفته بودم که دگر می نخورم با دگران
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آن شبِ قدری که مستان را شرابی می دهند
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ای که نمک از لب شیرین تو هم چون شکر است
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ماه رمضان آمد و امساک طعام است
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بیا که در سروده ام غزل غزل ترانه می شوی
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گر برفتم یک زمانی زین دیار
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فرقت از چهره ی یار این همه نیست
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انتظارِ گفتنِ چَشم از نگارم ، من ندارم
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ازت ممنونم ای عادل ، که اندر محشر کبرا
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هر که فرهاد است و مَست از جامِ شیرین خورده است
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عید آمد و عید آمد ، آن عیدِ سعید آمد
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يارا چه گويم اکنون ، آني که دل رُبودي
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تا که جان از یدِ جانانِ جهان در بدن است
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ای آهوی صحرایی با آن دلِ دریایی
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ما که چو شمعی به رهت سوختیم
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آن رَز که مِی از آن خورَد عارف به حساب
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عشق به صد شور و شر جان مرا سوخته
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آمدم در جمعِ مَستان تا به مَستی سَر کنم
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سنگ مزن به جان من ، ره نبرم به جنگ تو
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ای باد صبا هلهله کن آمده پاییز
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دارم گِرِهی در دل و خون کرده به پا
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دست به گیسوی بلندای شب انداخته ام
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چه خوش آن دامن صحرا که گل از چمن بر آید
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می روم از ساقِ سیمینش به بالا زان نگار
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همه گل های گلستان همه تقدیم تو باد
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