چهارشنبه ۲۸ آذر
اشعار دفتر شعرِ غزل شاعر طارق خراسانی
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باز آمـد آن بهـارانی خــزان از مـا گـرفت
رفت طارق آن شر و شــورِ غـمِ اهـلِ سـتم
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مستان، ز پیـرِ میکـده حـرفی شنیده ام
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اُف بر آن دستی که زنجیر آفرید
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به کوچه کوچه ی تاریخ با تو می خوانم
که عشق...، روح خدای عظیم مَنّان است
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دلم را بُرده موجِ چشمِ ماهی...
مگیر از من نگاهش را الهی
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تمامن حاملِ عشـق است و ایثار
که می خواهد زند این کاروان را؟!
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پُر گُهر مَردِ ايزدِ سبحان
فاتحِ مَرزِ پُرگُهر... آمد
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فرزند ادب را برسان ناله ي خورشيد
مٓه تعزيه خوان است كه
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ساقي ميار باده، كه اين غم مكرّٓم است
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عشق مي ورزم و سرزنده و شادم همه عمر
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من دانم و آسمان و آن دلبرِ جان
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ز عصرِ خويش چه گويم؟ بسي كه دلتنگم
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ما بهاران را ميانِ جهل و خون گم كرده ايم
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پَرپَر شدگاني كه سرودند حقايق
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تو را دارم اكنون جهان با من است
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تاوان عاشــقی... چـه کسی می توان دهد
وقتی که کمترین ز خـدا، دادنِ ســـــر است
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آنقـدر خوانـم مَهَ م، تا از محاق آید برون
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از عشق شنیدیم:«در این خانه صدا هست»
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شعرِ صياد، اوه... چه حساس است!
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از تـو فـرار می کنم ...، باز تـویی مقـابلم
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بيا و بوسه ام را واژگون كن
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اي خاك كربلا، سخن از كربلا بگو
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او به یک گوشـه ی چشمی، گره را وا می کرد
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ناگهـان عشـق فــرود آمد و زیبا دَر زد
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خانه بر دوش است عمري ملتِ احساس من
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ته مانده ي نفـــرينِ مســـتي
بود آنچه جامش را نشان داد
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خدا به جسم علی، جان خویش بخشیده
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کـــوه را بایـد بـه دوش عشـق بُـرد
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تو را ندیده به دیده،به چشمِ جان همه دیدم
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فریب خورده ی این روزگارِ نامردیم
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حدیثِ عشق، قلم را که بَر نمی تابد
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این عجب نَبــوَد، ببینی گـرگ هـا آدم شدند
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چشم خود را می نهی بر روی هم یک ثانیه؟
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آنقـدر بـه پای دلِ سـنگِ تـو... نشستم
تا دختـرِ افکـارِ
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دلِ من همسفرِ کوچِ پرستو هایت
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تا منم زنده مرو ، مَرد به پیمان باشد
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فصل الخطاب حاشیه زنجیر می شود
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هر اناالحق زدنی را نبود پاداشی
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فرار می کنم از دستِ لااُبالی ها
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واژگـان...، عاشـقانِ پروازند
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من از غـزل بارانِ چشمانِ تو خیسم
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هفته به هفتـه، مَـه به مَـه، روی مَهَت ندیده ام
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دست هایش تـنِ تنهایی من می بوســید
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تا اوج احساسِ صنوبر ها...، سرودن
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به شطِّ عشــقِ تـو پــرواز می کـند طـارق
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در روز قُـدس...، هیئـتِ فـریـادِ من بیــا
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