شنبه ۳ آذر
اشعار دفتر شعرِ ساحلی خاموش شاعر امیررضا شریف زاده
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قلبم از قهرت پریشان شد شکست
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دلنوشتی است که گفتیم و غزل نام گرفت
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شال سر کردی و گیسوی سیاهت پیداست
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کشیدم چشم هایت را نمیدانی چه چشمانی
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میروی باشد ولی خورشید را با خود مبر
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منطقی شاید نبود این گونه شیدایت شدن...
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حرف ها بسیار دارم گوش میخواهم فقط...
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حال من خوب است اما یار باشد بهتر است
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سفر که ناله ندارد برو نفس جانم
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مجنونم و چون بید دعا کن که بمانم
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امشب شبِ یلداست؛ شبِ شعر و شبِ عشق
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بینِ من و تو فاصله یک لحظه سلام است
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امّیدوارم من به رویایی که دارم
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عاشق شدم عشقم به تو اندازه ندارد
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در گلستان غزل آیهی ما بود که رفت
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من در آغوش خدا بودم نمیدانی چه حالی داشتم...
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من جهان را دیده ام در چشم نازت نازنین...
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نا امیدم از تو اما باز هم میخواهمت...
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تو را میبینم و بهتر چه خواهم...
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بر دست پر ز مهر شما بوسه میزنم
چشمان آسمان تو را بوسه میزنم
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من از این خانه ی ویرانه بدم می آید
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ساکنِ خاکم ولیکن آشنای آسمان
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