دوشنبه ۵ آذر
اشعار دفتر شعرِ بابونه شاعر محمد علی ساکی
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چون چشمه كمي بزن بهادر باشي
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از هول حليم توي ديگ افتاده
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اي عشق هميشه في الصدور الناسي
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دو بیتی های پینه بسته ام را
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ای شعر یقین که مهره ی مار منی
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غزل حق دارد از تو رو بگیرد
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امضا نكن با قهر حكم انفصالم را
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برهم زده اي قاعده ي بازي را
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توهين به رسول مهرباني تا كي
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چرا گل مي كني سر چشمه ي آب
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دارا همه چيز داشت با دوز وكلك
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برمعجزه ي نگاهت ايمان دارم
اين بود كه از كيش تو مرتد نشدم
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با حيرت و دلهره به تو زل زده ام
انگار كه جاده ي هرازي اي عشق
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هر چند رفيق نيمه راهي بودي
سرگرمي وطنز گاه گاهي بودي
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تا زير طاق ابرويت اتراق كردم
عكست به بالاي غزل الصاق كردم
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غواص ناشي گرچه درگرداب مي ميرد
ماهي به مكر تيغه ي قلاب مي ميرد
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در منطق تو نبوغ جاري شده است
روشنگري فروغ جاري شده است
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در آرشيوش از تو فيلم مستند دارد
چندين سكانس از صحنه هاي خوب وبد دارد
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با ديدن پارسا بهم مي ريزد
يكباره فرو چو ارگ بم مي ريزد
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براي هر پرنده واژه ي زيباي پروازي
به گوش سرو مي خواني الفباي سرافرازي
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هر خانه كه شد صاحب دو كد بانو
بايد بخورد بره ي آن را لولو
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امشب كه چنين گرم غزلخواني خويشم
در ژرف ترين اوج ز حيراني خويشم
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فانوس دريايي من سوسو گرفته
يا كشتي طوان زده پهلو گرفته
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با گوهر اشك كرد غوغا پروين
تا گنج يتم كرد پيدا پروين
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(بي تو مهتاب شبي ) كوجه مرا آه كشيد
روي ديواره ي دل عكس تو را ماه كشيد
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اي كاش آن شيرين بيان همصحبتم مي شد
يا كه طنين خنده هايش قسمتم مي شد
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مگر خورشيد بانو
چقدر مهمان دارد
كه هرصبح تا غروب
برنج در ديگ دريا مي ريزد
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مي نويسم مشق هاي زندگي را اشتباه
آب و نان را جا به جا ، دارا وسارا اشتباه
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تبارم به فدايت يا ابالفضل
فداي يا اخايت ياابالفضل
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آن روز كه زير سنگ باران ، خورشيد
مي خواند به روي نيزه قرآن ، خورشيد
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از متن ذهنت پاك كردي دكترين ها را
تا كه بدست آورده باشي نقطه چين ها را
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من كه به تن خود زده بودم پيه هارا
هاشور تو خط زد همه ي حاشيه هارا
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با پرواز
آب ودانه يافتني ست
آب و دانه ي قفس
پرواز را از ياد پرنده مي برد
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اي كه با يك عشوه از پير و جوان دل مي بري
اخم هايت با من است و خنده ات با ديگري
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صد ساك پرازكادوي پز آوردم
ويروس به جاي عطر رز آوردم
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كلبه اي داردگلي ماه منير
مي نشيند روي فرشي از حصير
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ماهي تنگ بلورت خواب دريا ديده است
خواب آزادي به دست گرم سارا ديده است
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درمسير خلوت روياي من
اين خيال ناكجا پيماي من
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در بلوغ سر به مهر غنچه هايت جاري ام
روبه دريا مي رود خيزابه ي بيداري ام
نو به نو مي گردم از خوشخ
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گاه گداري
گدارم بر تو كه مي افتد
گدازه مي شوم
گرگر گر مي گيرم و گيوه هايم گيج مي شوند
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آن آينه كه شانه به دستانم داد
ژوليدگيم ديد به اين فكر افتاد
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درپادگان هاي نظامم كو دتا كردي
يا انقلاب مخملي در من به
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صحاوه باغم و سي ميوه داغم
د چن اول هلارو بيه باغم
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خسته شدم از ديدن سريال تكراري
از سوژه ي زرد اكيب فيلم برداري
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فصلي زكتاب عشق تا باز نمود
كوچش به عروج عشق آغاز نمود
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تا از طنين گام هايت جان گرفتم
بوي گلاب قمصر كاشان گرفتم
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هم آينه ي رئوف پندار مني
هم طوقي جلد روي ديوارمني
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رخت خيس آسمان رابادبرد
روسري كهكشان رابادبرد
ازلب ابر ترنم بي خبر
طعم شعر ناگهان رابادبرد
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