يکشنبه ۲ دی
اشعار دفتر شعرِ واحد نامه شاعر ابوالقاسم افخمی اردکانی(واحد)
|
|
آمـــد و ایــن دلِ سرمـا زده را با خود برد
دلِ بی صــاحبِ تنهــا شــده را با خود برد
|
|
|
|
|
گدایـــــی همــــگان را ، کنار راه ببینـی
مگرگدایی واحد که هست خانه به خان
|
|
|
|
|
همگی حق دارید!
دخترک حق دارد...
پسرک نیز چنین...
سیب هم نقش ندارد اینجا...
|
|
|
|
|
در همین جـــا امـرِ حق را بـاز گو ! / رمــــز و رازِ آخــــرین اِعجـــاز گو !
|
|
|
|
|
برخیز که گشت موسم مهر ...
|
|
|
|
|
سخن کوتاه کن "واحد" که ترسم/همه گویند بغدادت خراب است!!
|
|
|
|
|
تا بیـــایـد قســـط را بــر پا کُنــد/مـی ســـرایـم آی�
|
|
|
|
|
گفتم برآمد جان به لب کِی می دهی کام از طلـب؟/گفتی که تـو جــان پروری! کِی لایق جـانـانه ای؟
|
|
|
|
|
یک شب اگر مست و خرابم کنی/ دســــت بــــرآری و شــرابم کنی
|
|
|
|
|
شکافِ کعبه گواه است و این گواه بس است
|
|
|
|
|
چه می دانی چه ها کردی/فُسون ها، فتنه ها کردی/چه آتش هـا به پـا کردی...
|
|
|
|
|
آیــه بـه آیــه دل مــا مـی بَـرَد/سیره ی تو سوره ی مستانه ها
|
|
|
|
|
شــراب کهنـه نــداری نگـار نـو نَطَب/که واحـــد است بر این مدّعا گواهی نو
|
|
|
|
|
پیــک حق می خوانَد این پیغـــام درگوش نبـی/
دشمنــت ابتـر شـده ، بهـر تـو کوثــر می رسد
|
|
|
|
|
شبی اندر طویله ای الکی/
شد به پا یک مناظره خرکی/
|
|
|
|
|
کام ازکمین وسوسـه ها بَر نشد، مگر
تیـــرم کـه از کمنــدِ کمـان می
|
|
|
|
|
بِذِکریکَ عَینی تَذرفُ الدَّمعَ کَالشَّمعِ/وَمَا اَطیَبَ الرُّؤیاکَ فِی قَطرَةِ الدَّمعِ
|
|
|
|
|
خودِ بیخود خَزَفِ خانه ی جنّ و پـری است!
|
|
|
|
|
آتش شد و در خرمن زلفش بگرفت/
هر بوسـه که بر آن لب تبدار
|
|
|
|
|
و پریدم،
بی لُنگ ولباس...!!!،
|
|
|
|
|
زیـر بـار فلـک نمـی رفتیـم/تاخت بـر مـا و ناگزیر شدیم
|
|
|
|
|
خیـــالِ من که خیالاتیِ خیــال تو است/
خیــال
|
|
|
|
|
مهـرت فروغ جــان و دلت باغ ارغوان
فرتوتِ سالخورده به عشقت شود جـوان
|
|
|
|
|
اگر واحـــــــد بمیـــرد، باز گویی
کــه بـادمجــانِ ب
|
|
|