يکشنبه ۲ دی
اشعار دفتر شعرِ دیوان ایمل حکیمی شاعر ایمل حکیمی
|
|
بریز ساقیا که امشب نویسم از تو
|
|
|
|
|
روزگار ما هم مکتب می رفتیم
|
|
|
|
|
فردا که روزی قربانیست جان من قربانت
گوشی مرا نکن آب کـــــه سوختم از بریانت
|
|
|
|
|
دیوانه ام ز من کسی کار ندارد
|
|
|
|
|
از فراقت بی پرو بال شدم ای نازنین
|
|
|
|
|
حکیمی رفته بسیار دور ز پیشت مادرم
من نمیتوانم بیایم تو بیا بر سر قبرم مادرم
|
|
|
|
|
در جهان آب و گل هرگز نمیگیری قرار
چون نسیم از کوی او بر میان افتادهایم
|
|
|
|
|
مکتب مردان رفته ایم بسیار چیز آموخته ایم
|
|
|
|
|
شب ها نمیبرد خواب روز ها در فکرم
|
|
|
|
|
ز دنیا کج بشین صاف بگو سخنت را
|
|
|
|
|
هزاران عبادت کرده ایم در عبادتگاه حق
|
|
|
|
|
چشم ما هر دم به نور روی او بیند به خواب
|
|
|
|
|
درد من درد ندارد به درد ها
|
|
|
|
|
قمار زده را پروایی پول ندارد
|
|
|
|
|
هرات زلزله زده گان را دعا کنید
|
|
|
|
|
درد من دیدی ز احوال من چه میپرسی
|
|
|
|
|
چشمی که تو را هر دم بیبیند
|
|
|
|
|
ما گر گوشه نشینی میکنیم از غرور
|
|
|
|
|
هرکس دیوانه هست ز من باهوشتر است
دیوانه گر ز من گردد دیوانه تر دیوانه میگردد
|
|
|