يکشنبه ۱۴ بهمن
اشعار دفتر شعرِ سلطان ۱ شاعر علی سلطانی نژاد
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هرچه هستی:عاشق خود باش، ای عالیجناب
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آخر عشقی که یادم داده بودی، درد بود
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قدر یک ثانیه، از عشق ندارم راحت
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درد مرا جز چشم تو درمان مگر بود
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عاشقی رسم قدیمی گشته، دیگر باب نیست
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هفت قرنی هست عشق غیر از پشیمانی نداشت
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میتوان آیا بجرم بوسه زندان تو شد؟
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تا کجا دلخوش به این عنوان انسان داشتن!
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عشق و شعر و دفتر و خودکار میخواهی چکار
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تو دلبر ممنوعه ی زیبای منی که
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بیدار شو! امروز شاید آخر خط ست
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چون رعد و برقی، عمر خود را طی نمودهام
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آنچه چشمان تو با دل کرد،، با من غم نکرد
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آنشب که خدا داند و من دانم و این تخت
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عشق را تا میتوانی از دل من دور کن
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در جواب دلبریهایم شروع ناز کن
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ببین بانو! چه کردی با دلی که گشته ناچارت
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عشق و شعر و دفتر و خودکار میخواهی چه کار
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کی صبح شود تا تو کمی هوش بیایی
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شبی آزار او، در قلب من، اصرار خواهد شد
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اگر صد سال نوری دور باشم از نگاه تو
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از من بگذر، نمیتوانستم...!
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آغوش اقیانوس حق بچه ماهی بود
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گاه تو را خاطره ی خوب کسی زندگیست
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وقتی که غزل میزدم از چشم تو فریاد
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عشق گاهی جان بگیرد قسمت دردآورش
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مهتاب تویی، برکه منم...فاصله را باش!!
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در جواب دلبریهایم شروع ناز کن
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