پنجشنبه ۶ دی
اشعار دفتر شعرِ غزل شاعر سعید احمدجامی (خواجه)
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از خود به در آ یک دم و در فکر نوا باش
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ای که تب کردی ز شوق روی یار
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اینک یکی پیدا شده تا در هوایش پر زنم
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من خراباتی ام ای جان ؛ چه رسواتر از این
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ساقی امشب از چه می پرسی تو احوال مرا
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بر من ای دوست نگیر خرده که آزرده منم
به هوای تو در این باغم و افسرده منم
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بی تو اندازه یک شهر پر از بلوایم
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میروم تا با غم دنیای خود خلوت کنم
میروم تا با خود واین خلوتم عادت کنم
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با برق نگاهی دلم از سینه جدا شد
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باز بیا باز بیا خواجه به هر ساز بیا
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بوی باران است و می مستم نمیدانم ز چی
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بوی عطر سوسن و یاس و بهاری دگر است
لحظۀ دیدن دلدار و قراری دگر است
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عالم همه از توست در این پهنه گیتی
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دل به دست آر که خندیدن مستان هوس است
زندگی گاه به سالی و گهی یک نفس است
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به تماشای رخ زرد من امروز بیا
شده ام شهره عشق تو ز دیروز بیا
تن من سرد و ندارم رمق
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بوی عطر زلف تو چون در هوا آید پدید
مست مستم میکند مستانه نتوانم نشست
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چنگ در پرده بیانداز و بزن نغمه نو
که درا ین چنگ چه افسرده و بیمار شدیم
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هر لحظه عمرم به دم و باد هوا رفت
بیهوده مپندار که امروزه چنینم
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به آغوشم بگیر امشب ندارم خانه ای دیگر
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مژده ای دیگر رسید ای عاشقان غوغا کنید
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بر خیز تو ای مرغ دلم بال و پری زن
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سینه در آتش هجر و غم دلدار بسوخت
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بودم به خمار لب زیبای تو جانا
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بشنو که دلم امشب آواز تو میخواند
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بهتر از تو حال من را کس نمیداند نپرس
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راز این دل را فقط جانا تو میدانی وبس
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جان من گر پند خواهی گوش کن
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ای کاروان بنگر کنون یاران شتابان میروند
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چه کردی با دل ای دیده مه زیبای من گم شد
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ز سحر گوشه چشم تو من افتاده در دامم
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خواندی مرا با یک کلام این لحظه وآن آمدم
برچیده دامن از زمین سویت شتابان آمدم
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بیا دستم بگیر ساقی مرا مشتاق دیدار است
بسوزانم در این مستی اگر دانی که ناکمم
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به تیر چشم خود امشب زدم قلب ثریا را
که شاید از قضاء باشی تو در بند شکار من
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به لطفت ساقیا امشب بسی مستانه ميرقصم
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امشب ای دوست دلم در تب دیدار بسوخت
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دردی که بود از عشق صد جان به فدای او
در جان نبود شیرین آن هم چنین دردی
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در حریمت آیم و شب تا سحر نجوا کنم
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سیه کردی دو چشمت را ببین با من چه ها کردی
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آب را آهسته بردارید مبادا گل شود
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شب از وجود روی تو پر شده باز هوای من
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هوای کوچه تاریک و هوای خانه غمگین است
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خواهم به چشم مردم یک دم عیان نباشم
وز خاطر نگاهی من در گمان نباشم
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یک سال دگر عمر تو چون باد خزان رفت
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ای صاحب نای و نوا چیزی بده بهر گدا
در من چه باشد جز صدا چیزی بده بهر گدا
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مهمان چشم و دل شدم امشب بمانم یا روم
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از دور می آید به گوش امشب صدای ساز تو
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هشدار که این عشق تو را خام نسازد
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روز وشب را میزنم بر هم که تا یابم نشان
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راز و اسرار نهان با کس نمی گوید کسی
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