دوشنبه ۱۱ فروردين
اشعار دفتر شعرِ غریبه شاعر مازیار نظری
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زندگی بر ما اگر پائین یا بالا گذشت ... هر چه بوده ، خوب یا بد ؛ عاقبت امّا گذشت
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چو بر گُلعـذاری نظـر دوختم
چه داند کسی تا کجا سوختم
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عجب آشفته بازار است اینجا
شبیهِ عهدِ قاجار است اینجا !
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اگرچه ظاهرت از جورِ زندگی پیر است
برای عاشقی کردن گمان نکن دیر است
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از صحبتِ ناكســـــان گريزانم من
از سُـــفرهِ كركســـــان گريزانم من
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در پيچ و تابِ عمر از بي تكيه گاهي
شـاعر شبيهِ شاخهِ نيلـوفـري مُرد
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خاطرم هست به جمعي ، شب ِ دلگيري بود
هم در آن جمع ، يكي سوته دل ِ پيري بود
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خدا در آسمانها گريه مي كرد
دَمي كه ديد حال ِ مادرت را
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یک بوسه به بیرق ِ سیاوش زد و رفت
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نمی گريد كسی بر گور ِ مُرده
كه اينجا زنده ها هم گورخوابند
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پيرهن از عقب ، جلو بِدَران
يوسفت را اسير ِ چاه مكن !
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اي زمانه ! به تو اميدي نيست
شاعران را به حال ِ خود بگذار
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قسمتِ دل زِ عشق ِ خوبان چيست ؟
يك بيابان ِ بي كسي با درد ؟!
آاااي ليلا تو كه نفهميد
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من كه بي طاقت و لَت و پارَم ، تار ِ مويي مرا به بند كِشد
خرمن ِ مو به روي شانه نريز، جان ِ من اند
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بچّه بودم دل ِ مرا بُردي ، اي غزل عشق ِ اوّل و آخر !
نارفيقان به تو جفا كردند ، تو به آغوش ِ
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رود ِ حيرانم و در كفش ندارم ريگي
اينقَدَر سنگ به راه ِ گذر ِ من نگذار
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وصفِ احوال ِعاشقي سخت است، هر دلي داغ ِ كهنه اي دارد
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من با دلم غريبه و دل هم غريب تر
در اين دهات ِ كوچك ِ ما آشنا كم است
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نا مهربانم ! آخرين شعرم همين است
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عاشقي چون حُقّه ِ وافور بر اهل ِ دَم است
دست ِ خود را از سر ِ ما برنمي دارد رفيق !
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چشم و دل از وجود ِ همه پاك كرده ام
عشق ِ تو را به سينه ِ خود خاك كرده ام
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” كودكيها كي شوَد تكرار ؟! “ ؛ هي يادش بخير!
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عاشقی کارِ دل است و همه کس می دانند
من مگر مُرتکب ِ جُرم و گناهی شده ام؟
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شانِ نزول ِ این غزل دیگر ز ِ من نپرس
کِشتم نهالِ عشقی و امّا ثمر نداشت !
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یاد کن آنکه تو را در تب و تاب است هنوز
نرگس ِ مست ِ تو را دید و خراب است هنوز
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راه ِ خود گم كرده ام ، اي دوست آبادي كجاست ؟
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نازِ زيبا صورتان چشمِ ِ مرا تر مي كند
كودك ِ احساس را چون لاله پَرپَر مي كند
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هر چند چشمت با نگاهم مهربان نيست
چشمم به دنبال ِ نگاه ِ اين و آن نيست
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طفل ِ بازيگوش را استاد كردن مشكل است
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هُنر آنست که بی درد بریزی اشکي !
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بخت ِ خواب آلود را بيدار كردن مشكل است !
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سوز ِ " مادر مُرده " را فرياد مي داند فقط !
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چند روزيست دلم سخت هوايي شده است
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اي كه آتش مي زني ! نزديك ِ خاكستر بمان
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هر كه بشكست دلي پاك ؛ تقاصَش باقيست
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آن كه با تو عاشقي كرده ، چه حالي كرده است !
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ياد ِ آن كوچه ؛ شب ِ مهتاب ؛ دلتنگم هنوز
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دل ِ من تنگ ِ كسي نيست ؛ ندانم چه كنم !
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عاشقي كن مست و بي پروا ؛ حالم را نپرس !
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من و يك حنجره فرياد ، چه مي داني تو !
يك دل و اين همه بيداد ، چه مي داني تو !
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دست ِ الله نگهدار ِ تو باشد ؛ رفتم !
مي روم تا دگري يار ِ تو باشد ؛ رفتم !
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خانه ِ دل را اگر از نو بسازي ؛ خوشتر است
نرد ِ عشقت را اگر بر من ببازي ؛ خوشتر است
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