پنجشنبه ۱ آذر
اشعار دفتر شعرِ شبرنگ شاعر اعظم قارلقی
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شادمانی را ز دنیای درون احضار کن
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شب در کنارت، روی تختی، با تو همراهم
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گفتم چرا خدایا... دستم نمک ندارد
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نمیدانی، برایت بیصدا در می رود جانم
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حاضرم صبر کنم، منتظرت می مانم
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وای از شجاعت ای اجل/ من پشتِ در هستم بیا
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گفته ز آغوشِ خودش/ مرا جدا نمی کند...
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تبریک به مناسبت روزِ جهانیِ مربی
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چه آسان می زنی چاقو، چه راحت میکِشی شمشیر
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کسی حالی دگر از من نمی پرسد!
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بوی بهشت می دهد، قبرِ امام در بقیع
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این عددِ بی زبان، شیر کند گربه را
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شدم وارونه در قسمت، میانِ خواب و بیداری
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عشقِ من تیغ مکِش/ آهِ مرا بیش مکن...
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روی آتشِ دلِ عاشق... کتریِ ترانه می جوشد
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آنطرف در گوشه ای دِنج...
خارِ عاشق باز کرده... بستری آرام بر گل
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قدم هایت به روی برف باقیست...
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و شب با این همه مهمان/ فقط تو.../ تو را کم دارد ای باران!
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تو باران بودی و من یک وَجب خاک
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تو را من دوست دارم/ تو ای همراه و هم بِستر
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