يکشنبه ۲ دی
اشعار دفتر شعرِ هیمالیا شاعر علیرضا آرین مهر
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بعدِ مـن هـر کس بیاید یار و غمخوار تو نیست
مهــربــانم شیطــنت کــردن ســـزاوار تو نیست
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طـرحِ مانتــوی تــو دلــبـــاز شده ، ای جانم
صــورتی رنـــگ و جـــلوبــاز شده ، ای جانم
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روحِ چنگــیزِ مغــول در اَبـروانـت لانه کرد
که سمــرقنـدِ دلــم را یـک شبــه ویــرانه کرد
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تاکسی! لطفــا نـگه دار و مـــرا با خــــود ببر
تـا نمـاند دیگـــر از مـــن نه نشـــانی و اثـــر
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دسـت من نیســت اگـر محو تماشـای توأم
دل اسیـرت شــد و بـازیچـهء رؤیـای توأم
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به گمانــم تـو هــم انگــار به یادم هستی!
بعــدِ روز و شــب بسیــار به یادم هستی
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دلــم قسطنطنیـه بـود و یـاقــوتِ درخشــانی
که شد مغلـوبِ خشمِ ارتشِ سلطـانِ عثمــانی
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طبعِ شعرم گوشه ای افتاده و مرطـوب شد
شکلِ پیکــانی قراضه خسته و معیوب شد
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طعنه های تو که آلوده تر از تهران است
قلبِ مغـرورِ تـو یادآور بِن سلمــان ست
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نکــند جنــگ شــد و بـاز مـن و بی خبــری
ســـرِ اَبـــرویِ فــریبنـــدهء عهــــدِ قجـــری
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دنیای من بی تو هوایش سرد و ابری ست
این آهِ من سریـالِ تکـراریِ صبری ست
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عشــقِ تـو در نظـرم داغ تر از مــردادَ ست
طرحِ لبخندِ تو چون ناب ترین رخداد ست
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پشــتِ ویتــرینِ مغــازه ایستـــادم ناگهان...
رد شود با یارِ خود ، من را نبیند بی گمان
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این خط خطی اصـلاً برای جــرزِ دیوار
اصــلاً شبیـهِ شــیء کهنـه کنــجِ انبـــار
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لاک پشتـی مـی رود پـاییزِ ســردِ لعنتی
زیر پـایم بـرگ هـای خشـک و زردِ لعنتی
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در کنــــارِ جنگــلِ سـرسبــزِ چشمـــانِ شمــا
مــی پرد آهـویِ احسـاس از میــان واژه ها
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خسته از بودن در این دنیا شدی؟! من بیشتر!
بی خیـــالِ دیـــدنِ فـــردا شــدی؟! من بیشتر!
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سـاعتِ پنـج شـد و قـول و قرارِ من و تو
بـاز پنهان شـدن از ایـل و تبــارِ مـن و تو
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دوستت دارم که گفتی قلبِ من زیر و زبر شد
در جوارِ بوسه هایت خستگی از تن به در شد
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شب های من چِرت و شبیه حصرِ اجباری
هم بندی ام گوشـی شـد و تا صبح بیــداری
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دلــم گرفته تــر از کــافه هــای تنهایی ست
خـدا خــدای شمـا شـد همیشه فردایی ست
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قسـم بـه زمـزمـهء دختـری پری سیما
میـانِ کـوچــهء تاریــک، یـکّه و تنـــها
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کنـارِ پنجــره بنشین و بــاران را تماشا کن
فضای عـاشقـانه در خیـابــان را تماشا کن
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باز در گوشـم کسی انگــار نجـوا می کند
قلـبِ غمگیـنِ مـرا با بوسه احیـا می کند
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از وَرای دیــدن گـــل بــوته ای در بیشـه زار
یــا فراسوی صــدای چشمه ای در کوهسـار
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میــانِ کشـمکــشِ اَبـــروانِ نـــورانـی
بیانترس! تـو جنگنـده ای خروشــانی
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