سه شنبه ۲ بهمن
اشعار دفتر شعرِ غزل شاعر زهرا منصوری
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شرار خشم و غضب در نگاه آدمهاست
ببین ڪه از لب مردم ، تبسم افتادست
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به خدا عشق به رسوا شدنش می ارزد
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نسیم صبح می گوید که برخیز
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برف آمد وشد سپید رخسار کویر
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از قافله ی عشق دلا جا ماندیم
محزون و دل آزرده و تنها ماندیم
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از کوی خدا روی به بیراهه نیارید....یا حداقل کودک شش ماهه نیارید...
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دیگر دلم اسیر توهُّم نمیشود
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رفت ماهی که دلم گرم به دیدارش بود
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باید که صفا داد به یادش دل را...
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تشنه ی وصل یار شو،بیخود وبیقرار شو
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باید که از دستت دلم را پس بگیرم
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ملافید عاقلان ، از عشق دیگر
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ای خوشا در آسمان ،اختر چو پروین داشتن
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یک روز حسی در تو می روید...........
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ای خواجه به مال خود چه نازی.......................
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من ندانستم از اول که پرستار نمایی
زخم نابستن از آن به که ببندی و گشایی...
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می زند با تازیانه بر سر ورویم قبــــــــــــول
میکشد از روی سر هم چادر ومعجر چرا........؟
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کوری چشم بدان باده ی گلگون داریم...
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ای سفر کرده گر این عید بیایی چه شود
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سر آن نداری امشب ٬که گذر کنی زکویم
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گر که من عاقل شوم٬دنیا دگرگون می شود....
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باغم ببین که بی تو چه بی بار مانده است...
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خلوت عاشق به از بازار عشق...
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