شنبه ۲۰ ارديبهشت
اشعار دفتر شعرِ غزلیات عرفانی شاعر عباس زارع میرک آبادی
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اي راز نهان جاوداني، ای ساز و نوای آسمانی
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باغ و بَر و شاخه، آنچه رسته ست عيان
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دیوانه سری، عاشق و مجنون شده بود
// از غصه ی هجر ِ یار، دل خون شده بود
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در باغ سبز وجودت نهان شدم
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از ماندن خود خسته ام، بار سفر را بسته ام//
شادی کن از این رفتنم، از خاک و از
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صد قافله دنبال تو، تو غافل از احوال تو
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گرمی این نفس از نای تو است//
از حضور قدم و پای تو است
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مستم ز حضور گاه گاهت، بی خود ز خودم من از نگاهت
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گفتم كه صراط مستقيم چيست عزيز
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خبر آمد كه دلارام به كويم آید
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گیر است پای عاشق، در گل چو پای لنگان
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مهربان آن یار شیرینم به نجوا آن زمان
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باغ و بَر و شاخه، آنچه رسته ست عيان//
پروانه و كبك و طوطي، هر يك به زبان
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اقبت اندیش نی ام رخت بَرِ خویش نی ام
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دوش مستانه در آغوش تو خوابی دیدم//
شعله در بستر دریاچه ی آبی دیدم
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ساغر وساقي و میخانه ومست//
از حضور قدم و پای تو است
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خبر آمد كه دلارام به كويم آید
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آن یار حریف صد خم آید ز نهان//
ساقی به دو صد پیاله آید به جهان
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در خانه ی دل آمدی و شاد شدیم
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سرو، بلبل را بگفت ای کامکار//
بر سر شاخ گل آیی و گلستان در کنار
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باغ و بَر و شاخه، آنچه رسته ست عيان//
پروانه و كبك و طوطي، هر يك به زبان
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شب فراقِ تو بگذشت و شد سحر ای دوست
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گفته ایی ای یار اسرارم هویدا می کنی
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ای آرزوی خوبان، ای آشنای مستان
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یاد کن از این دل و این جان ما ای نازنین
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باز در خانه ی دل جای قدم هایت ماند
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سایه انداخته ایی بر سرم ای سرو عزیز
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سبز آن قبا به دوش در آمد ز آسمان//
گفتا هزار قصه ز بالا ي بي كرا
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یاد یاران کو سفر کردند آزارم دهد//
یاد آن خوبان که بر دارند آزارم دهد
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صد شكر كه مه آمده، كاشانه ي ما را//
روشن بنموده دل ديوانه ي ما ر
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سحر به باد صبا گفت عاشقی بد نام//
ز عشق روی نگاری گرفته ام این نام
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غلام روی تو شد دل، رفیق دلجویم
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چهره را بگشا كه دل ويرانه كردي نازنین//
خانه در ويرانه ها جانانه كردي نازنین
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به گلستان دل ما گذری کردی دوست//
چشم ها بسته، نگاه دگری کردی دوست
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اي كه از ما چشم خود كردي دريغ//
اي كه در بحر تو ما همچون غريق
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خوشا به حال كسي كو اسير آن یار است//
خوشا به مرغ دلي كو به دام دلدار است
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چون صور دميده شد كه بر پا بشويد//
آورده گشوده جمله، بر ما بشويد
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پروانه صفت گرد تو دل چرخ زنان شد
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ای که بر جای پیمبر زده ایی مسند خویش
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در خوابِ من آمدي سحر شكوه كنان//
گفتي كه چرا فاش شد آن سِّر گران
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بلبلي ناله برآورد كه اي بي خردان//
آخرآمد، قدم مرگ و به سر عمر كلان
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ساقي و ساغر و ميخانه و مستي به جهان//
هر کدام منزلت روي تو را گشته به جان
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باز آن پيام خوش از سوي او رسيد//
جانم صفاي مقدم او ديد و برجهيد
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هزار جام می از دست دیگران آمد//
نه هوش برده ز سر، نی شعور ازآن آمد
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اي كه بر كوي گدايان گذرت افتادست//
بر من مفلس عاشق نظرت افتادست
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آمد آن دلبر شيرين، سحرم دوش به بر//
با سبو پر ز شراب، داد پيامي چو
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اي آشناي اين دل عاشق خوش آمدي//
از هر گناه و كبر تو فارق خوش آمدي
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با خويش آوردي صفا، صد مرحبا صد مرحبا
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ساقيا بگشا قدح، تا درد را درمان کنيم
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ما همه مست و عاشقيم، سوی شراب می رويم
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يکی مست بشوريد و ز ميخانه برون شد///
يكي جام شكست او و از آن خانه برون شد
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باز اين شاخه پر گل و باز غنچه مست//
هر گل كنار عاشق خود آرميده ا
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در سحرگاه، ندا از طرف یار رسید //
در میخانه گشایید، که دلدار رسید
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پيمانه ي ما پر شده، يارب نظري كن//
براين دل ديوانه ي ما، هم گذري كن
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صد زخم خورد دلي كه شيدا است//
ديوانه شود
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بركش پياله و مستي كن و بخوان//
چنگي به ساز عيش بزن اي ترانه خوان
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به گلستان غزل، نغمه ی شیرین آمد
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گفتم كه خيال نقش يار است به جام
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امر داروغه برآن شد که رخ یار بپوش
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ما را نسیم خوش کوی تو بس است
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جمله عالم همه بي شور و شرر بنشسته
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گفتند سبوي شيخ پر است از ره ثواب
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در حلقه آمد آدمي، تا کام خود گیرد دمی
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گويند درد ما را، درمان نباشد از يار
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دوش به ميخانه شد، مست به پيمانه شد
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ديدم كه باغبان زمان را تبر به دست
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يوسف به چاه جفا شد ز روي خويش
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دزديد دل ز خانه، بيرون شد از ميانه
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ديشب از راه دل خويش به كويش گشتم
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چون خانه ی دل در زني، آهسته بايد آن زني
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بلبل به باغ گل آمد كنار يار
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در رقص ديدم آن برگ، كز شاخه اش رها شد
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بازار داغ عشق ز رونق فتاده است///
دكا
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به ياد آن قدح و جام و آن مي و ساقي//
به ياد آن بت مست و به
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ساقي آن جرعه نوشين به برم باز آور//
شور و حال دگر و دلبر ما باز آو
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گفتمش عقل بَرَد از سر تو، باده ناب
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گفتم كه دگر پرسه به كويت نزنم///
از مي نخورم، لب به سبويت نزنم
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ملامتم مكن ار مست و خراب شدم//
از عيش روي تو مستانه خواب شدم
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صد آسمان به رقص درآمد ز روي تو
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افسوس که حریفان به وصال تو رسيدند
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