چهارشنبه ۲۸ آذر
اشعار دفتر شعرِ شعر نو شاعر رضا نظری
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در این شب ها که حتی باد هم از نام خود هردم گریزان است...
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گاه می میرَد و می میرانَد...
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شاید این بیراهه
که پی اش می گیریم، یک دروغ محض است
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جدول افکار افلیجی که در آن مانده ای...
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سخت است... سخت تر از سخت...
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کاش می فهمیدم ذوالفقار تنها یک تکه آهن نیست...
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نه تني... نه استخوان...نه جامه اي خونين...
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مصدق و آزادی نام دو میدان هستند در کرمانشاه!
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هر چند وقت یک بار به خود تلنگری می زنم یا ضربه ای...
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غرشی بود و یا اینکه خیال غرش؟!
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رهنورد...
راه می پیماید...
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عشق است دیگر! -این هم خلاصه!-
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حبابم آبله ست اينك به زير پاي حيرانم...
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يكي بود، يكي نبود
تو كناره ي يه رود...
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در گلو مانده ست فریادی...
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در این قحط سال، دستانم از واژه تهی...
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دل ام يك كاوه مي خواهد...
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فقط يك سنگر است....
آري...
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تیغه ی شلاق ِ هرسوکوب ِ باد...
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مرا به فصل خزاني قباي تيره مپوشان...
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چه ساده می توان ، که گاه ... بغل بغل غزل نوشت...
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دل ام یک کاوه می خواهد، درفش کاویان در دست...
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تقدیم به تمام شاخه های فرو افتاده در مرداب...
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زمين... هم آسمان افكار نو مي خواهد از هستي...
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طوق سنگین جهالت می نوازد گردنم...
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غم يك قافيه در غربت وزن...
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اصفهان ، نصف جهان بود کمابیش ولی...
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و باد هرزه در رفتار بي گفتار...
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آموخته هایم به شبی تار ، فرو ریخت...
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به نيماي بزرگ و شهيد گمنام اش...
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مخراشيد دل ِ سنگ، كه او هم در دل...
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ساز بد آهنگ هستي
ساز ناكوك عدم...
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لعنت مادام بر این حرف دل
که مرا آواره ی هر کوی کرد...
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غريبه... آمدي...
در دست تو چيزي نهان از چشم...
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ساز بد، آهنگ باد و رقص مرگ
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نمي ترسم از اين فريادهاي گنگ و تو خالي
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تو را هر لحظه مي جويم ميان دانه هاي خيس و بي رنگش...
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افتاده ام اينك من، در دام تسلسل ها...
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جنگ ، جنگ_ بودن و نبودن است...
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آري آري سكوت مي كنم بانو...
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بگو جانم... بگو شايد كه برخيزد خدا از خواب سنگين اش...
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او به من ، مهر داد و من نفرت...
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قطره اي آب نمانده ست...
زمين هم مرده ست...
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خوش نوایی ست صریر خامه...
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