شنبه ۱ دی
اشعار دفتر شعرِ برآمدی از دل شاعر کبری قرباغی (کوثر)
|
|
در حصرِ قضایِ روزگاریم همه
خسته ز جفایِ روزگاریم همه
|
|
|
|
|
سفره ی اغوای ننگین تو برچیده شده
رو نقاب از چهره برکن سینما شد برمَلا
|
|
|
|
|
خواب دیدم آمدی دنیایِ من مِهراب شد
|
|
|
|
|
از آن روزی که رفتی از کنارم
نوایِ بی نوایی کرده خوارم
|
|
|
|
|
ستایش میکنم دستانِ بابا مهرِ مادر
یه بوسه میزنم بر رویِ ماهِ هر دو گوهر
|
|
|
|
|
غبار وداعِ تلخت طلوعِ فصلِ خزانم
هجوم تیرِ فراغت دلیل چینِ دلم شد
|
|
|
|
|
گفتمت مطرب بیا سازی بزن غمگـینِ دل
آمدی بـا قـلبِ ویرانه ی من تـمـبک زدی؟!
|
|
|
|
|
پنجره باز و هوا ابری و من چشم انتظار
صبر کن باران که نجوایی به گوشم میرسد
|
|
|
|
|
چو بدخواهی دلت خرم ببیند
به کامت سفره ی اغوا بچیند
|
|
|
|
|
مالِ دنیا چرکِ دست و جسمِ سالم نعمت است
|
|
|
|
|
زبانی نرم و قلبی سنگ داری
|
|
|
|
|
جگر از سوز سم دریای خون شد
|
|
|
|
|
شبهای بی قراری مأوای قلب من کو؟
|
|
|
|
|
زندان و قفس دو واژه ای یکسانند
|
|
|
|
|
مرا کشتی
از آن روزی که رفتی غِبطه ام دادی، مرا کُشتی
همان لحظه که محنت کوله ام دادی، مرا کشتی
|
|
|
|
|
روزگاری منزلی پر شور بود
از کرم تا مِهتَری مشهور بود
ناگهان طوفان رسید از نوعِ غم
جای شادی ها خز
|
|
|
|
|
ای کاش دلم اسیر احساس نبود
|
|
|
|
|
اندیشه مفرط آخرش پیرم کرد
|
|
|
|
|
آن همه خنجر زدی اصلا فراموشم نشد
مهرت از دل رفته الا، آن همه کردارِ بد
|
|
|
|
|
به نی گر دل سپردی غافل از گله نشو چوپان
|
|
|
|
|
مقصد رود از کف که تو مدهوش شوی، آه
هـوش از دلِ عـقـلت بـبـَرد غـفـلـتِ بـیـجا
|
|
|