چهارشنبه ۱۴ آذر
اشعار دفتر شعرِ عاشقانه های کثیف شاعر تورج شاه علی
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دهانم واقعا تابوِت مخصوصِ خداوند است
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از زن درکی به جز بدن داشته ایم
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عقل ات که نمی رسد رگم را بزنی
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لُخت شو ، وا کُن مرا ، خود را بپوشان با تنم
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دخترکی ، همسرِ چندم شده بود
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دستِ زن وا می کُند یک دکمه از پیراهنش را
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زیرِ کفش ات منفجر شُد آن بهشتی که نبود
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یک نفر اندامِ آدم دارد امّا گوسفند است
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فرهاد
و احمق رفت و شد شاگردِ قنّاد
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آرام شُدن به لطفِ خوداِرضایی
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تارهای صوتی ام را ضبط کرده دادگاه
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یک ملاقاتِ خصوصی بینِ من با گردنَت
آخرین دعوای من با دُکمه ی پیراهنت
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مرا زنده کُن زیرِ مُشت و لَگد
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صبح تا بیدار شُد، فهمید از دیروز مُرده
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جُفتِمان را بِستری کرده ست تغییرِ دمایت
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حرف های فاسدم را باید از حلقم درآرم
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آب و جارو کرده ای امشب دهانت را عزیزم
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دستی بِکش و دُرست کُن باز مرا
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دهانم جزو املاکِ کسی نیست؟
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این زن که همیشه قابلِ خوردن بود
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هر زنی - بعد از تو - در ذهنِ مریضم زد قدم
خوب لیسیدم تَن اش را ، بعد هم دارَش زدم
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بگذار به هم جیـــــــغ تعارف بکُنیم
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خودکشی سِت بود با رنگِ کثیفِ هستی ام
دکترم می گفت : حتماً زندگی ات را بشور
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هر چیز که نِفله می شود، مالِ من است
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چشمانِ سبزت عاقبت، گیاه خوارم می کُند
حالا ببین لبهای خوشرنگ ات،چکارم می کُند!
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صرفه جویی کرده ،با قاشق لبت را میخورم
تا بدانی....
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چونکه وزنَت رفته بالا، دور میریزی دلت را
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