يکشنبه ۲ دی
اشعار دفتر شعرِ تنهایی شاعر علی جوانمرد(تنها)
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من شاکر لطف و کرم حضرت حق م
یک عمر وجودش به وجودم که عجین شد
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داغ و غم زینب(س)در این عالم نگنجد
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شب و روز حیران و آزرده ایم
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شب های من شبهای تنهایی و درد است
یک شب بمان و با منِ تنها سحر کن
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من که دلداۀ مهر و صنمِ جان بودم
کس خریدار نشد بر سر بازار چرا؟
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دنیا تو رها کن دلِ غمدیدۀ ما را
این درد دگر در تن و جان م شده لبریز
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تو که ای دل به گلستان وفا جای ت بود
دیدی آخر ثمر از باغ بجز خار نبود!!
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جانش اندر دستِ صیادِ فلک
عاقبت در دامِ غم نخجیر شد
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من فتادم زیرِ پای جورِ این چرخ فلک
اینچنین حیران شدم ، مانند اسب بی سوار
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اینک این خاک سیه بالین من
زائر اینجا شدی یادم بکن
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باز آمدم روی م سیاه دل پر گناه
یا ربّنا دستم بگیر
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مرا جان در هوایت رفتنی شد
تمام حرفهایم گفتنی شد
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مرا تو مهربانی ای معلم
صفایی ،سروری،جانی معلم
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خسته ام از روزگار چون قفس
در قفس،ازحجم سنگینِ نفس!
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جان می دهی و نشاط را هم
تو هدیۀ عالیِ خدایی
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ای برف سپید و جانفزایی
دستانِ مرا به تو نیاز است
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من اینجا، زمستان و برف و سپیدیِ یادت
کجایی؟ الهی شوم من فدایت ، فدایت
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در این فصلِ بازیگر رنگ ها
نکردی چرا یادِ دلتنگ ها
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رنگ رخسار
رنگ به رخسار من از غم تو نیلگون
دل ز فراق ت چو شب ای گل من قیرگ
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رخ ات چون ماه تابان بود آن شب
وجودت مایۀ جان بود آن شب
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خانۀ دلها چه ویران کرده ای
باقی از تو این همه آوارها
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باز منِ دلشده حیران شدم
فصل خزان دیدم و ویران شدم
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توهم مثل منی تنهای تنها
دل ت خونِ زنادانی دنیا
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مرا چون برگ پائیزی پریشان کردی و رفتی
تمام هستی م را از چه ویران کردی و رفتی
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