چهارشنبه ۲۸ آذر
اشعار دفتر شعرِ دفترچه بغلی سیاه مشقهای من شاعر باقر رمزی ( باصر )
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حرف و کلام از ادب می جهد از کام ما
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خفت چه می پذیری بهر مطاع دنیا
کم کن غذای دل را ای دل ورای خود شو
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آخه ازدیدن وحشت سرما زیر کلاه بود
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جان را برون بیفکن از باد و خاک و آتش
چون آب باش و جاری فردا بقای خود شو
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ز درد کهنه ما فسانه خوان افسوس
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یارب این نو دولتان با یوق هم پیمان شدند
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از گونه هایت ای گل صد رنگ می تراود
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آتشم خاكسترى را طالبم بهر وجود
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ای یار تو با چشمه غمدیده بیمار چه کردی ؟؟
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فتوا چه می دهی که حرام است لعل دوست
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پس شیر ژیانِ ره منصور کجا رفت ، کجا رفت ، کجا رفت ؟
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گریه زیر چتر نمناک خیابان بگذرد
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دل برای دیدنت شب زنده داری می کند
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نور حق را چون گرفتم ژاله را پنهان مکن
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بیا جانا که دردم از فراق است
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در شبستان از ازل چشمان مریم سوخت سوخت
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در جامعه ی هستی مستی نبرد دستی
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ثروت قارون به پیش پای موران است و بس
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نعرهی شیر پاکتی در بند و منقضیشده
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ما روزگاری برای جوهر وجود
به دریا میزدیم
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به گرد خویش می گردم سماعی بی ثمر دارم
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برخیز که افتاده را نبود منزلی عظیم
وآنکس ز خاک بلندت کند او نگار توست
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می زنم بنیاد ظالم با پَرِ پروانه ام
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یارب این فردوسِ موعودِ بهاران را چه شد ؟
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هر کجا دل برود محفل عنقای من است
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عاقبت کاخ بلندت شود از داد خراب
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باغ اگر سوزانده شد دیوار می خواهد چه کار ؟
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صد پینه گر زده دوست به دلم عجیب نیست
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بى تو اى سرو سهى در دل بستان چه كنم؟
با دل غمزده ى نرگس و ريحان چه كنم؟
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یک سو نی و سوی دگر آهنگ جدایی
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برکش ز روی خویش مقنعه ی سیاه ریا
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باز آ که بالِ بازِ منِ غمگین شکسته است
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من از کوچهی دیوانهها آمدهام.
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خویش را در او رها کن تا شوی مهمان دوست
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يك جا رسد به دلها، باران به هر بهانه
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دست هر کس در توسل از ازل با دامنی ست
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شب است و شبیخون و خون و قبس
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گفتی برو ز پیشم گفتم به چشم خویشم
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برای ذرّهای نور،
دالانها را پیمودم.
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این است جامعهی نژاد آریایی
اصلاحشده .
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دیدی که گنه کردم و هر توبه ثواب است ؟
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رو مگردان امشب از عزلت سرای بی کسی
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تنبورهایمان از زخمهها بیزاراند.
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شاهد بزم حضورت در شبستانها شدیم
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سجده ما را نگر از بهر شیطان است و بس
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ما ندانسته به دامان بتان افتاديم
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مرگ بود که در دامان خشخاش
به دنیا میآمد
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مهلتي تا كه سحر با دل و جان برخيزم
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دارم هوس ذکر تو را ای مه شبگرد
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سوا شد دین و قرآن از دل ما
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نه نه ، زبانم لال ، تو از آنها نیستی
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یارب این زخمی که بر دل اوفتادست کو دوا
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ابن مُلجَم مرادی را فراموش نکنید !
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سوسن و لاله خم شده ناله ی زیر، بم شده
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آ و به چشم با خِرَد معنی کن آفتاب را
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دار بقاء فانی ات کرده ابوالبشر مرا
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ساغری دیگر به دست می پرستان نیست نیست
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روزی که خزان آمد خندان به فغان آمد
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ای دل که چو محزونی از چیست دگرگونی ؟
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چون به شاهی برسی طعنه مزن بی نان را
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چه کنم در ره کویِ تو نشستن سخت است
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شعر شدم شور شدم پای لب گور شدم
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انگشتنگاران قرنطینهی انفرادی
نمیتوانند مرا شناسایی کنند .
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طائر خویشم و با طالع خود خو کردم
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کی وعدههای قسم به قلم برآورده میشود ؟
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زخم بزن زخم بزن بر تن زنجیرها
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خنده دندان نما از دل و جان رفتنی ست
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منکران و کذّابان،
دودهای شیشهای را بخار دهان تعبیر میکنند.
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غم نان خوردن و بی دینی ما کفران است ؟؟
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وز میان تب ِ جان با چه نشان برخیزم؟؟
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ای گیاهکاران کرانههای آسیب!
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گم شدم در کوچه های سرد بی پایان او
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بتهای سرکش و شیوخ از پشت کعبه سرک میکشند
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آخر چگونه گویم درد درون خود را
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هرگز فراموشم نکن جانانه و ارباب من
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ای شبنم فروش
گردهی گلهای ارغوانی!
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