چهارشنبه ۵ دی
اشعار دفتر شعرِ افراغ اندیشه ام شاعر زهرا تمیمی
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شب پره را فرستادی
ز جویای حال من
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می کوبد
چونان دست
موجی خروشان بر صخره ها
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قشنگ است
س : سفید
م : مشکی
آ : آبی
ق : قرمز
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با یک نگاه شگفت
بگذشت ایام
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گفتی
عشق چوآید برد هوش دل فرزانه را
حال گویم تورا
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کسی باور ندارد
کسی باور ندارد
که من بیدارم
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داستان انتظار من به وصال تو
همچو داستان انتظار کرم ابریشم به پروانه شدن است
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تو خسته ای
تو بی حواس
تو بی حوصله
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لحظۀ سبز وصال
لحظۀ خالی شدن از تهی
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در جزر و مد و امواج
پر تلألؤ دریا شناورم
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عشق یعنی
مستانه وار نوشیدن جامی ز زهر را
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عروس شب
روشنایی اش را از پنجره
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گویند
زِ روی عشق
عاشق کند معشوق را بیگانه
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دیدگان تو در شعر قاب من
گرم و روشن بودند
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خوابت
مانند آواز باران طنین آوا
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گفتی شوقی که در آرزوی وصال است
در وصال نیست زیرا در وصال بوی جدایی می آید
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فصل خزان رویای شب و روز مه و خورشید به سر رسید
آن زمان که ای نا آشنا
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شَهدای من بشنو سوز دل را
کز فراقت دیده بخشکید
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شاعر شدم
و
آمدم به کوچه های دلتنگی
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در مسیر طیف باد می ایستم
تا مرا به آغوش گیرد
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آن خال لب لعل شرابت
برد هوش از جان و روانم
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زِ امید به وصال تو
مسجد نشین شد م
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سخت است فراق عزیز
سخت است از سوز دل گفتن
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با نگاه تو
شب می شنوم
روز میبینم
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با عشق به رنج پی برده ام
و
با رنج به وجودت
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چشم های من
گرمای خواب می خواهند
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خود را در سکوت لحظه های ساعات شب مهتابی می سپارم
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چه حال عجیبی داشتم
در آن شب شوم بی فروز
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قاصدک
گویند زِ تو در شهر ما
خبر آوری زِ یاران
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بِسّمِ رَحمانُ رحیم
حمد گوییم تورا
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رفتی
دوری
شکستی این حُبابِ بلوری
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می روم خسته و افسرده و زار
دیدار تلخ آشنایی شد یار من
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حیرانم
بر ره دوگانۀ زندگی
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تو پاکی
مثل روشنایی شب مهتابی
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امروز همچو هر روز
همچو موج خروشان
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شراره زد آتشی بس
اندر وجودت
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ترسیدی همه بدانند
در سکوت شبی تاریک
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گاهی رو به دیده ات می ایستم و به گذشته می اندیشم
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پدرم تو ای نازنین موجود تویی که وجودِ بی وجودم
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هیچ نگاهی زِ روی تو هیچ نجوایی زِ سوی تو
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به ظاهر گلرخ و شاد و فریبام
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قرار نیست
خواب دیدگانمان را
خراب کنیم
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تنها من ردپایت را در ردپای شب دنبال می کنم
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بهانه آوردی و مرا به طعم خاک و خاکستر
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بهار است عَیانِ جوانی چه چشیدم زِ بهار
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بد اقبالی را نوشتند از روزِ اَزل بر دل من
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این شعر زِ از آن تواست
ای امید آرزوها
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زمانیکه جان در بدن داشتم
زمانیکه گلِ سرخِ کوچک در سینه
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آسمان می گرید
و
بوی خاک را به مشامم می رساند
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اخترِ تابناک ولایت
تابید بر چهل فصل آیت
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دارم بمانند مجنون
امشب حالی
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افسوس
که هستی وجود را به نامت
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باز شبی مهتابیُ
دیدگانی اشکبار
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زیبا است
دیده به انتظار بستن
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گویم زِ تو با عشق و جان
ای صاحب فضل و ثناء
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