جمعه ۳ اسفند
اشعار دفتر شعرِ شکوه شاعر میرعبدالله بدر
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ای شوخ پری وحش کمی دلبری بکن
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امشب به دلم باز هوای تو نشسته
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باغ دلم بی تو زرد و پاییز می شود
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بنشین کنارم با تو کمی درد دل کنم
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بغضم گرفته سخت باریدن دلم شده
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دوباره چشم خیره شد به سوی یک تصویر
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دست وفا از ما بریدی؟ خوب کردی !
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دیوانه ی تو بسته به زنجیر می شود
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بیهوده چند جانبِ کوِیت نظر کنم
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در عشق تو جانا به خدا بال و پرم سوخت
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در کوچه و پس کوچهِ ی تقدیر خم و پیچم
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جز یاد تو در خاطر ناشاد ندارم
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از کوی تو افسرده و بیزار می روم
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اي شوخ فداي سر تو جان و تن من
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دل را به خنجر مژگان درید و رفت
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دلم تنگست، نمیدانم چو من تنگست دلت ؟
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جانا به خدا در ره عشق تو فنا من
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عشق گر آتش زند، دل شود افروخته
برق نگاهی کند، خرمن جان سوخته
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ما را به جهان تو یخن چاک کشیده
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در کار زمانه هر که دیوانه تر است
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ما داد کنیم و گـرچـــــه بیداد شود !
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نقشِ رخِ تو چو مي رود از نَظَرم
از سَر به بَرم مي رود از بَر به سَرَم
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" ای مرگ بیا که زندگی " کُشت مرا
سنگیست ز روزگار بر پشت مرا
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از منزل وهم خویش پایین شده ام
یعنی به گمان شیخ، بی دین شده ام
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دانیم که خدا هر آنچه خواهد به جهان
انجام دهد کشد بسی خط و نشان
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تو رفتی بی تو قسمت شد، هوس ما را
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به گردون میرسد آه دلم شب ها
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از دل نرود یاد تو بیرون نه و نه نه
لیلی رود از خاطر مجنون! نه و نه نه
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شادی به غم نگار بفروخته ایم
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غوغای دل خود را،فریاد کنم ؟ یا نه
اندیشه صبر خویش، برباد کنم؟ یا نه
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چشمان من ابریست هوایم گرفته است
از بس گریسته گلو ،نوایم گرفته است
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از خویش رمیده ام من به کجا رسیده ام
من به کجا رسیده ام، کز خویش رمیده ام
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