شنبه ۱۳ ارديبهشت
اشعار دفتر شعرِ مهر شاعر محمد خسروی فرد
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توبه ی دل مرگ چشمی آشناست
عاشقم من عاشق چشمت هنوز
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گل بکارید عاشقان در خاک خشک...
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بگو بریزد هر چه اشک است و آب
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از بدِ حادثه هنگام غروب
به تماشای جهان آمده ایم
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در جهان سوخته ایم سوخته ایم...
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پیر کرد آفت نگاهت جوانی ام را....
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آن کس که تو را دیده می داند و بس
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فهمیدن تو میان عشق است و گناه...
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با تو من درمانده از تفسیر توحیدم هنوز
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بت خانه تویی و سینه سازنده ی تو
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آمــدم تا کـه بگــیرم نفـسی
شـوق دیـدار تو آمـد به سـرم
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من مست توام بی می تو لالم و کور...
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میخانه تهی شد از می و نور و صدا
من مست تو و پیاله افتاده جدا...
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در خلوت خود نشسته ام باده به دست
از بـرق نـگاه و چشــم زیبای تـو مست
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هر گوشه ی این جهان نشستی خوش باش
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می شنود خدای تو هر سخن و ندای تو
ناله به گوش کر مبر غیر خدا صدا مکن...
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توبه ی دل مرگ چشمی آشناست
عاشقم من، عاشق چشمت هنوز
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ما ترسوها جهان را به ستمگران داده ایم...
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از مهر و از اندیشه ات پیداست
ای مهربان درد وطن داری...
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نگاه چشم تو عاشق ترم کرد
نمی دانم که بد یا بهترم کرد
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چون عاشقی را آرزو کردم...
در فال من فصل بهار آمد
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آقا حسن ای مرد فهمیده
جوشانده ی خوبی فراهم کن
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در قاب چشمان تو بودم من
تا رخنه کردی در دل و جانم
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نفرین به آدم به دروغی که نوشت...
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شعر همچون آینه باشد رفیق
رو به سوی آینه پرواز کن
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شده ام باده پرستی بت آواره ی عشق
بینوایی که از آن روز ازل وا داده...
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نوری و نشانه ای در این سینه ی ماست
چون مهر و وفا زبان دیرینه ی ماست...
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ما سفره ی عاشقانه انداخته ایم
دنیای درونمان چنین ساخته ایم
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همه جا سیاهی و غم...........
همه جا سکوت و ماتم
آدمـای پشت دیـوار..........
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گفتم که بگویم غزل از چشم سیاهت
چشمان تو اما هنر قافیه را برد
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شاید که درد اه ویر به چو، اما نگارم هر هه سی...
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بی نوایی در کــنار جــدولی.....
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فرزند بشر به فکر خود سالم شد...
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چون عاشقی را آرزو کردم...
در فال من فصل بهار آمد
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درگیر چشمان تو بودم من....
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تا بـه کـی ایـن غـم هــجران تو را یـاد کـنم...
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من مانده ام و این دل دستور چه فرمایی....
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در خم گیسوی تو افتاده ام
زلف توپیچیده به سامان من...
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بمانی همیشه در این قلب من
تو مهر خدایی سلام ای وطن...
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کردیم از این سرای ویرانه عبور
پای من و تو رسیده اینک لب گور. ..
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نگاه چشم تو عاشق ترم کرد
نمی دانم که بد یا بهترم کرد...
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تا چشم به این جهان گشودیم
پیراهن عاشـقانه ای دوخـت...
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به نام وطــن، کـیش و آیین من
نباشد به جز مـهر او دین مـن...
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بی گــناهی رفت بر بالای دار
دار خندید و کـمی خشنود شد...
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میشه مگه با تو نباشم من
ای سرزمین عشق و امیدم
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نقش ما چون به سیاهی می زد...رقص بارید بر این کرده ی ما
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سلام ای وطن ای همه باورم
چگونه از این مهر تو بگذرم
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چمریتم اَرا چَه بـی وفـایی
بکیشم تا که اِ داخ جــدایی
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به نام وطن مانده در یادها
درون دل سنگ فریادها....
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آرزو کردم و با عشق تو هم دوش شدم...
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ای سفر کرده از آغوش وطن
مهر تو هست در این خانه ی ما...
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کیش من از مهر و از این کیش نیست
عمر زر و زور از این بیش نیست...
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آخر ندیدی پیش چشمانت...تقدیم تو کردم بهشتم را...
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گو به جهان پس بدهد جام می و یار مرا
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تو معجزه کردی در این قلبم...چون بعد عمری سخت باریدم...
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چون آتش عشقت به من افتاد...کوه غم و خاکسترم کردی
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از مهر و از اندیشه ات پیداست... ای مهربان درد وطن داری
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مرا این مهر ایزد تا ابد بس...
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دانی جواب دنیا گور است و خشت و آجر...
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تو در کنارم باشی و من هم
دنیای خود را با تو می سازم...
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سیکَه سوزا بیهَ دشت و هُمارَه...
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ما اغنی عنه ماله و ما کسب...
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میشه مگه با تو نباشم من
ای سرزمین عشق و امیدم
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زنده شده بیشه زار، سبزه و گل بیشمار
بوی حقیقت دهد، بوی خدا نوبهار....
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چو بر پیشانی ام آدم نوشتند
برایم شادمانی کم نوشتند....
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درگیر چشمان تو بودم من ....
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هر لحظه شدم خواب شب تو
بازآ تو به آغوش شب من...
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مغز مردم در دهان مار رفت...
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پیشنهاد به فیلم ساز عزیز: شاهنامه را بخوان
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در مهر تو می بینم آزادی سرزمین
پاینده باد خاک ایران زمین...
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برای قدقد و هر تخمی از او
گرفته ترس و امیدی وجودم
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دل خوش مباش به این وام ازدواج
زنی که با وام آید با قسط می رود...
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برون کن ز اندیشه ات جهل و سحر
بود زندگی ای بزرگ دوست "مهر"
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دیوانه و بیمارم اندر ره شیدایی....
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